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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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निम्नलिखित स्थल अत्यन्त मर्मस्पर्शी कहे जा सकते हैं-बन्धुदत्त का भविष्यदत्त को अकेला मेगानद्वीप में छोड़ देना और साथ के लोगों का सन्तप्त होना, माता कमलश्री को भविष्यदत्त के न लौटने का समाचार मिलना, बन्धुदत्त का का लौटकर आगमन, कमलश्री का विलाप और भविष्यदत्त का मिलन आदि ।
___ कमलश्री विलाप करती है कि हा हा पुत्र ! मैं तुम्हारे दर्शन के लिए कब से उत्कण्ठित हूँ। चिरकाल से आशा लगाये बैठी हूँ। कौन आँखों से यह सब देखकर अब समाश्वस्त रह सकता है ? हे धरती ! मुझे स्थान दे, मैं तेरे भीतर समा जाऊँ । पूर्वजन्म में मैंने ऐसा कौन-सा कार्य किया था, जिससे पुत्र के दर्शन नहीं हो रहे हैं । इस प्रकार के वचनों के साथ विलाप करते हुए उसे एक मुहूर्त बीत गया ।
हा हा पुत पुत उक्कंठियइं घोरंतरिकालिपरिट्ठियई। को पिक्खिवि मणु उम्भुद्धरमि महि विवरू देहिजिं पइसरमि ।
हा पुव्वजम्मि किउ काई मई णिहि देसणि णं णयणई हयई। -(भ० क० ८, १२) इसके अलावा इसमें रस-व्यंजना की दृष्टि से शृंगार, वीर और शान्त-रस का परिपाक हुआ है।
संवाद-योजना-कवि धनपाल के कथाकाव्य में संवादपूर्ण कई स्थल दृष्टिगोचर होते हैं, जिनमें काव्य का चमत्कार बढ़ गया है और कथानक में स्वाभाविक रूप से गतिशीलता आ गयी है। मुख्य रूप से निम्न संवाद भविसयतकहा में द्रष्टव्य हैं- प्रवास करते समय पुत्र भविष्यदत्त और माता कमलश्री का वार्तालाप, भविष्यदत्तभविष्यानुरूपा का संवाद, राक्षस-भविष्यदत्त संवाद, भविष्यदत्त-बंधुदत्त संवाद, कमलश्री मुनि-संवाद, बन्धुदत्त-सरूपा संवाद और मनोवेग विद्याधर-भविष्यदत्त तथा मुनिवर संवाद आदि।।
शैली-धनपाल के कथाकाव्य में अपभ्रंश के प्रबन्ध काव्यों की कडवकबन्ध शैली प्रयुक्त है। कडवक बन्ध सामान्यतः १० से १६ पंक्तियों का है । कडवक, पज्झरिका, अडिल्ला या वस्तु से समन्वित होते हैं। सन्धि के प्रारम्भ में तथा कडवक के अन्त में ध्रुवा, ध्रुवक या धत्ता छन्द प्रयुक्त है। धत्ता नाम का एक छन्द भी है किन्तु सामान्यतः किसी भी छन्द को धत्ता कहा जा सकता है।
भाषा-धनपाल की भाषा साहित्यिक अपभ्रंश है पर उसमें लोकभाषा का पूरा पुट है। इसलिए जहाँ एक और साहित्यिक वर्णन तथा शिष्ट प्रयोग है वहीं लोक-जीवन की सामान्य बातों का विवरण घरेलू वातावरण में वणित है। उदाहरण के लिए-सजातीय लोगों का जेवनार में षट् रसों वाले विभिन्न व्यंजनों के नामों का उल्लेख है, जिनमें घेवर, लड्ड, खाजा, कसार, मांडा, भात, कचरिया, पापड़ आदि मुख्य हैं।
गुणाधारिया लड्डुवा खोरखज्जा कसारं सुसारं सुहाली मणोज्जा।
पुणो कच्चरा पप्पडा डिण्ण भेया जयंताण को वण्णए दिव्व तेया ॥ -(भ० क० १२, ३) डॉ. हर्मन जेकोबी के अनुसार धनपाल की भाषा बोली है, जो उत्तर-प्रदेश की है। डॉ. नगारे ने पश्चिमी अपभ्रंश की जिन विशेषताओं का निर्देश किया है वे भविसयतकहा में भली भांति दृष्टिगोचर होती हैं।
__अलंकार-योजना-धनपाल ने इस कथा काव्य में सोद्देश्यमूलक अलंकारों में उपमा और उत्प्रेक्षा का प्रयोग किया है। उपमा में कई रूप दृष्टिगोचर होते हैं । मूर्त और अमूर्त भाव में साम्य है। जैसेते विदिठ्ठ कुमारू अकायरू कडवाणालिण णाई रयणारू
-(भ० क० ५, १८) इसी प्रकार प्रकृति-वर्णन में मानवीय रूपों तथा भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। कवि की उर्वर एवं अनुभूतिमयी कल्पना का परिचय उसकी अलंकार योजना में मिलता है।
१. डॉ० गजानन वासुदेव नगारे : हिस्टारिकल ग्रामर आव् अपभ्रंश, पूना, १६४६, पृ० २६०
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