________________
.४८
कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड
...
...
...
.
............................................................
हालांकि कुछ सीमा तक आज भी हमारी शिक्षा सिद्धान्त एवं साहित्यप्रधान अवश्य है जो केवल कुछ साहित्यकारों एवं शिक्षाविदों की स्वतन्त्र विचारधारा तथा भारतीय संस्कृति के कारण है। इसके द्वारा विद्यार्थियों को ज्ञान तथा संस्कृति तो प्रदान की जाती है परन्तु उनके व्यक्तित्व एवं चरित्र के निर्माण का कोई प्रयत्न नहीं किया जा रहा है।
विश्वविद्यालयी स्तर तक केवल पुस्तकीय ज्ञान ही दिया जाता रहा है जिसमें विद्यार्थियों के जीवन सम्बन्धी व्यावहारिक ज्ञान का अभाव है और यही कारण है कि आजकल हमारी प्रचलित शिक्षा पद्धति के विरुद्ध देश के लगभग सभी भागों में आवाज उठाई जा रही है। आजकल विद्यार्थियों को जीवशास्त्र, समाजशास्त्र, नागरिकशास्त्र, वाणिज्यशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, कानून तथा मनोविज्ञान की बड़ी-बड़ी पुस्तकें तो अवश्य पढ़ाई जाती हैं किन्तु वे व्यावहारिकता में इसके ज्ञान से बहुत दूर रहते हैं। जीवन प्राप्त करके कुछ भी उपक्रम का साहस तथा आत्म-विश्वास प्राप्त नहीं होता । साहित्य के अध्ययन मात्र में वह जीविकोपार्जन की कला नहीं सीख सकता।
प्रचलित शिक्षा प्रणाली के मुख्य तीन स्तर प्रारम्भिक, माध्यमिक तथा विश्वविद्यालय की शिक्षा, ये भी त्रुटिपूर्ण हैं । कुछ ही स्थानों को छोड़कर न तो प्रारम्भिक शिक्षा को अनिवार्य ही बनाया गया है और न ही इस देश के निवासियों के आर्थिक स्तर को देखते हुए निःशुल्क शिक्षा की ही व्यवस्था की गई है । यद्यपि अब शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन प्रायोगिक दृष्टि से अवश्य किये जा रहे हैं तथापि ये प्रणालियाँ भी अपने आप में पूर्ण नहीं हैं।
विदेशों में शिक्षा की ओर अत्यन्त ध्यान दिया जाता है। रूस में विद्यार्थियों को नि.शुल्क पढ़ाया जाता है और पुस्तकें भी राष्ट्र की ओर से ही मिलती हैं, विद्यार्थियों को सब प्रकार की सुविधाएँ दी जाती हैं, उससे उनकी बुद्धि के पूर्ण विकास में सहायता मिलती है। तकनीकी शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है। हमारी शिक्षा पद्धति 'आधी तीतर और आधी बटेर' है। न तो हमने पूर्णतया भारतीय शिक्षा पद्धति ही अपनाई है और न यूरोपीय ही।
. बेरोजगारी की समस्या बहुत पुरानी है। तेजी से बढ़ती जा रही जनसंख्या की समस्या से भी विकासोन्मुख देश पीड़ित है, यहाँ यह समस्या अपना विकराल रूप धारण करती जा रही है । यदि इस समस्या का समाधान समय रहते नहीं किया गया और केवल पलायनवादी प्रवृत्ति से काम लिया गया तो देश का भविष्य क्या हो सकता है इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। रोजगारों का सृजन, श्रमबल की वृद्धि के साथ अभी तक गति नहीं बनाए रख सका है। शिक्षित तथा तकनीकी योग्यता-प्राप्त व्यक्तियों के बीच व्याप्त बेरोजगारी की स्थिति निरन्तर चिन्ता का विषय बनी हुई है । अभी हाल ही में प्रकाशित अनुमान के अनुसार बेरोजगारों की संख्या बढ़ते-बढ़ते एक करोड़ नौ लाख और चौबीस हजार तक पहुंच गई है।
१६७६ की तुलना में १९७७ में जहाँ बेरोजगारों की संख्या ११.६ प्रतिशत बढ़ी है, वहीं रोजगार में लगाये जाने वाले व्यक्तियों का अनुपात ६.७ प्रतिशत से घटकर ४.६७ प्रतिशत रह गया है। पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या का प्रतिशत भी १६७६ की तुलना में गत वर्ष बड़ा ही है ।
यह एक वर्ष की प्रगति के आंकड़े हैं। बेरोजगारों की सेना यदि इसी गति बढ़ती रही तो यह प्रतिशत आगे बढ़ता ही जायेगा । दस वर्ष के बाद इसका क्या विकराल स्वरूप प्रकट होगा, यह कल्पना करते ही रोंगटे खड़े होना एक स्वाभाविक बात है।
कितने व्यक्तियों के नाम रोजगार के विभिन्न कार्यालयों में पंजीकृत हैं, कितनों को रोजगार प्राप्त हुआ, इसका विवरण पेज ४६ की तालिका से स्पष्ट है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org