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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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लघुजैनेन्द्र
इस ग्रन्थ की रचना दिगम्बर जैन पं० महा चन्द्र ने १२वीं शताब्दी में की। इन्होंने अभयनन्दी की महावृत्ति को आधार मानकर इस ग्रन्थ की रचना की। इसकी एक प्रति अंकलेश्वर जैन मन्दिर में तथा दूसरी प्रति प्रतापगढ़ (मालवा) के दिगम्बर जैन मन्दिर में है । यह प्रति अपूर्ण है। जैनेन्द्र व्याकरणवृत्ति
. राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारों की ग्रन्थ सूची, भाग-२, पृ० २५० पर इस वृत्ति का उल्लेख है। इसके रचयिता मेघविजय बताये गये है । यदि ये हेमकौमुदी व्याकरण के कर्ता मेघविजय से अभिन्न हों तो इस ग्रन्थ का रचनाकाल १८वीं शती रहा होगा। अनिरकारिकावचूरी
जैनेन्द्र व्याकरण की अनिरकारिका पर श्वेताम्बर जैन मुनि विजयविमल ने १७वीं शती में अवचूरी की रचना की है।
इन सब के अतिरिक्त भगवद् वाम्बादिनी नामक ग्रन्थ भी जैनेन्द्र व्याकरण से सम्बन्धित है। इसमें ८०० श्लोक प्रमाण जैनेन्द्र व्याकरण का सूत्र पाठ मात्र है। शाकटायम व्याकरण पर टीकाएँ
जैन परम्परा के महावैयाकरणों में शाकटायन दूसरे वैयाकरण हैं। इनके शाकटायन व्याकरण पर भी अनेक टीका ग्रन्थ लिखे गये। विद्वानों की जानकारी के लिए कुछ प्रमुख ग्रन्थों का विवरणात्मक विवेचन यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा हैअमोघवृत्ति
शाकटायन व्याकरण पर अमोघवृत्ति नाम की एक बहद् वृत्ति उपलब्ध है । यह वृत्ति सभी टीका ग्रन्थों में प्राचीन एवं विस्तारयुक्त है। इसका नामकरण अमोघवर्ष राजा को लक्ष्य बनाकर किया गया प्रतीत होता है। यह १८००० श्लोक परिमाण की वृत्ति है । यज्ञवर्मा ने इस वृत्ति की विशेषता बताते हुए कहा है
गणधातुपाठयोगेन धातुन्, लिंगानुशासने लिंगताम् ।
औणादिकानुणादी शेषं निशेषमात्रवृत्ती विधात् ।। इससे इसकी उपयोगिता स्वतः प्रकट होती है। इसके रचनाकार का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, पर अन्यान्य ग्रन्थों में उपलब्ध प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि इसके रचनाकार स्वयं शाकटायन ही थे । वृत्ति में अदहदमोघवषोऽरातीन्' ऐसा उदाहरण है, जो अमोघवर्ष राजा का ही संकेत करता है। अमोघवर्ष का समय शक सं०७३६ से ७८९ है। अत: इस ग्रन्थ की रचना ८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुई होगी। चिन्तामणिवृत्ति
इस वृत्ति की रचना यक्षवर्मा नामक विद्वान् ने की है। अपनी इस वृत्ति के विषय में वे स्वयं लिखते हैं कि यह वृत्ति 'अमोघवृत्ति' को संक्षिप्त करके बनायी गयी है। जैसे
तस्याति महति वृत्ति संहत्येयं लघीयसी। संपूर्ण लक्षणावृत्तिर्वक्ष्यते लक्षवर्मणा ।। बालाबाल जनोऽप्यस्या वृत्तरभ्यासवृत्तितः । समस्तं वाङ्मयं वेत्ति, वर्षेणे केन निश्चयात् ।।
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