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तेरापंथ के महान् श्रावक
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हो तो विराजे । सन्तों को आश्चर्य हुआ। स्वामीजी ने पूरी रात जागरण कर उन्हें असली तत्त्व समझाया। उसके बाद दोनों की पत्नियों ने भी गुरुधारणा की। पटवाजी के तेरापंथी बन जाने से काफी लोग झुंझलाये। ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार तो वे नहीं कर सकते थे पर लोगों ने उनके विरोध में काफी अफवाहें फैलायीं किन्तु वे अपनी श्रद्धा में मजबूत रहे। अपने जीवन में इन्होंने सैकड़ों व्यक्तियों को सम्यक्त्वी बनाया। स्वामीजी ने उनकी दृढ़ श्रद्धा को देखकर एक बार कहा था-"पटवाजी को सन्तों से विमुख करने के लिए लोग कितनी उल्टी बातें उन्हें कहते हैं परन्तु वे इतने दृढ़ विश्वासी हैं कि मानो क्षायिक सम्यक्त्वी हो।"
पटवाजी एक बार दुकान से उठकर स्वामीजी का व्याख्यान सुनने गये । सामायिक में बैठ गये । अब याद आया कि दो हजार रुपयों का थैला दुकान के बाहर भूल गया। स्वामीजी को निवेदन किया-आज तो आर्तध्यान की स्थिति पैदा हो गई । स्वामीजी ने उनको धीरज बँधाया और सामायिक में योगों की स्थिरता रखने की प्रेरणा दी और कहा- शुद्ध सामायिक की तुलना में दो हजार रुपये तुच्छ हैं । पटवाजी ने मन को जमाया, शुद्ध सामायिक को पूर्ण कर जब दुकान पर गये तो उन्हें देखकर आश्चर्य हुआ कि एक बकरा उस थैले पर इस ढंग से बैठा है कि थैला दूसरे को नजर भी न आये। उनके रुपये उन्हें वहीं सुरक्षित मिल गये ।
एक वार जोधपुरनरेश ने पाली के व्यापारियों से एक लाख रुपये की मांग की। दुकानदारों ने कसमसाहट की। नगर में उस समय दो ही धनी साहुकार थे। एक पटवाजी, दूसरे एक माहेश्वरी थे। पटवाजी ने विषम स्थिति देखकर माहेश्वरीजी से कहा- इन छोटे व्यापारियों को कसना अच्छा नहीं है, यह रकम आधी-आधी हम ही भेज दें। दोनों व्यापारियों ने पचास-पचास हजार रुपया जोधपुरनरेश को भेज दिये। नरेश ने वह रकम वापिस भेज दी यह कहकर कि मुझे तो केवल पाली के व्यापारियों की परीक्षा लेनी थी। इस घटना से पटवाजी का नरेश पर अच्छा प्रभाव पड़ा । पटवाजी दृढ़श्रद्धालु और व्यवहारकुशल श्रावक थे।
(8) श्री बहादुरमलजी भंडारी - भंडारीजी जोधपुर के सुप्रसिद्ध श्रावक थे । इनको धार्मिक संस्कार अपनी माता से मिले । साधु-साध्वियों के सम्पर्क से वे संस्कार दृढ़ होते रहे । जयाचार्य के प्रति इनके मन में अटूट आस्था थी। पाप भीरु और सादगीप्रिय व्यक्ति थे । जोधपुरनरेश की इन पर अच्छी कृपा थी। जोधपुर राज्य को इन्होंने काफी सेवाएँ दी। राजा ने इन्हें कोठार और बाहर के विभाग पर नियुक्त किया। काफी समय तक राजकोष का कार्य भी इन्हें सौंपा गया। कुछ समय के लिए ये राज्य के दीवान भी रहे। इनकी कार्यकुशलता से प्रभावित होकर नरेश ने इनको जागीर के रूप में एक गाँव भी दिया। नरेश की इतनी कृपा देखकर लोगों ने एक तुक्का जोड़ दिया-"माहे नाचे नाजरियो, बारे नाचे बादरियो" यानि अन्तःपुर में नाजरजी का बोलबाला है और महाराजा के पास बहादुरमलजी का।
राजकीय सेवाओं के साथ-साथ धर्मशासन को भी इन्होंने बहुत सेवाएँ दी थीं। अनेक घटनाओं में से एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण घटना मुनिपतजी स्वामी के दीक्षा सम्बन्धी है। मुनिपतजी स्वामी के पिता जयपुरनिवासी थानजी के यहाँ गोद आये थे। किसी कारण थानजी और मुनिपतजी स्वामी के पिता के परस्पर अनबन हो गई और वे थानजी से अलग रहने लगे । पृथक् होने के बाद पिता का देहान्त हो गया। कुछ वर्षों बाद माता और पुत्र मुनिपतजी ने जयाचार्य के पास सं० १६२० के चूरू चातुर्मास में दीक्षा ले ली। अब थानजी को विरोध का अच्छा अवसर मिल गया। उन्होंने जोधपुरनरेश को आवेदन कर दिया कि एक मोडे ने मेरे पोते को बहकाकर मूड लिया है अतः आप उस मोडे को गिरफ्तार कर मेरा पोता मुझे दिलावें। नरेश ने पूरी स्थिति की जानकारी किये बिना आदेश कर दिया और दस सवारों को लाडनूं की तरफ भेज दिया और कहा-उस मोडे को गिरफ्तार कर हाजिर किया जाय । उस समय जयाचार्य लाडनूं में थे। बहादुरमलजी को इस षड्यन्त्र का पता लग गया। वे रात के समय ही नरेश के पास गये । सारी स्थिति बतायी और आदेश को रद्द करने का रुक्का लिखवाया । वह रुक्का लेकर उनके पुत्र किशनलालजी एक ऊँटणी पर बैठकर गये और उन सवारों को बीच में ही रोक दिया। जयाचार्य को जब यह पता लगा तो वे भण्डारीजी की बुद्धिमत्ता पर बहुत प्रसन्न हुए। थोड़े दिनों बाद जब भण्डारीजी ने दर्शन किये तब भण्डारीजी को
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