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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
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बनाये। एक बात का स्पष्टीकरण करना यहाँ आवश्यक है कि यद्यपि शिथिलाचार का प्रभाव दिन-ब-दिन बढ़ रहा था, फिर भी उस समय जैनाचार्यों का प्रभाव साधु एवं श्रावक संघ पर बहुत अच्छा था, अतः उनके नियन्त्रण का बड़ा भारी प्रभाव पड़ता था। उनके आदेश का उल्लंघन करना मामूली बात नहीं थी, उल्लंघनकारी को उचित दण्ड मिलता था। आज जैसी स्वेच्छाचारिता उस समय नहीं थी। इसी के कारण सुधार होने में सरलता थी।
अठारहवीं शताब्दी में गच्छ नेता स्वयं शिथिलाचारी हो गये, अत: सुधार की ओर उनका लक्ष्य कम हो गया । इस दशा में कई आत्मकल्याणेच्छुक मुनियों ने स्वयं क्रिया उद्धार किया। उनमें खरतरगच्छ में श्रीमद्देवचन्द्रजी (सं० १७७७) और तपागच्छ में श्री सत्यविजय पन्यास प्रसिद्ध हैं । उपाध्याय यशोविजय भी आपके सहयोगी बने । इस समय की परिस्थिति का विशद विवरण यशोविजय जी के 'श्रीमंधर स्वामी' विनती आदि में मिलता है।
अठारहवीं शताब्दी के शिथिलाचार में द्रव्य रखना प्रारम्भ हुआ था । पर इस समय तक यति समाज में विद्वत्ता एवं ब्रह्मचर्य आदि सद्गुणों की कमी नहीं थी। वैद्यक, ज्योतिष आदि में इन्होंने अच्छा नाम कमाना आरम्भ किया। आगे चलकर उन्नीसवीं शताब्दी से यति-समाज में दोनों दुर्गुणों (विद्वत्ता की कमी और असदाचार) का प्रवेश होने लगा। आपसी झगड़ों ने आचार्यों की सत्ता और प्रभाव को भी कम कर दिया। १८वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में क्रमश: दोनों दुर्गुण बढते नजर आते हैं। वे बढ़ते-बढते वर्तमान अवस्था में उपस्थित हुए हैं। कई श्रीपूज्यों ने यतिनियों का दीक्षित करना व्यभिचार के प्रचार में साधक समझकर यतिनियों दीक्षा देना बन्द कर दिया । इनमें खरतर गच्छ के जयपुर शाखा वाले भी एक हैं । उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में तो यति लोग धनाढ्य कहलाने लग गये । परिग्रह का बोझ एवं विलासिता बढ़ने लगी। राजदरबार से कई गाँव जागीर के रूप में मिल गये । हजारों रुपये वे ब्याज पर देने लगे, खेती करवाने लगे, सवारियों पर चढ़ने लगे, स्वयं गाय, भैंस, ऊँट इत्यादि रखने लगे । संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि वे एक प्रकार से घर-गृहस्थी-से बन गये । उनका परिग्रह राजशाही ठाट-बाट सा हो गया। वैद्यक, ज्योतिष, मंत्र-तंत्र में ये सिद्धहस्त कहलाने लगे और वास्तव में इस समय इनकी विशेष प्रसिद्धि एवं प्रभाव का कारण ये ही विद्याएँ थीं । अठारहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध धर्मवर्द्धनजी ने भी अपने समय के यतियों की विद्वत्ता एवं प्रभाव विषय में कवित्त रचना करके अच्छा वर्णन किया है। . औरंगजेब के समय से भारत की अवस्था फिर शोचनीय हो उठी, जनता को धन-जन की काफी हानि उठानी पडी। आपसी लड़ाइयों में राज्य के कोष खाली होने लगे तो उन्होंने भी प्रजा से अनुचित लाभ उठा कर द्रव्य संग्रह की ठान ली। इससे जन-साधारण की आर्थिक अवस्था बहुत गिर गई, जैन श्रावकों के पास भी नगद रुपयों की बहुत कमी हो गई। जिनके पास ५-१० हजार रुपये होते वे तो अच्छे साहूकार गिने जाते थे, साधारणतया ग्राम निवासी जनता का सुख्य आधार कृषि जीवन था, फसलें ठीक न होने के कारण उनका भी सहारा कम होने लगा, तब श्रावक लोग, जो साधारण स्थिति के थे, यतियों के पास से ब्याज पर रुपये लेने लगे। अत: आर्थिक सहायता के कारण कई श्रावक यतियों के दबैल से बन गये, कई वैद्यक, तत्र-मंत्र आदि के द्वारा अपने स्वार्थ साधनों में सहायक एवं उपकारी समझ उन्हें मानते रहे, फलत: संघसत्ता क्षीण-सी हो गई। यतियों को पुनः कर्तव्य पथ पर आरूढ करने की सामर्थ्य उनमें नहीं रही। इससे निरंकुशता एवं नेतृत्वहीनता के कारण यति समाज में शिथिलाचार स्वच्छन्दता पनपती एवं बढ़ती गई। यति समाज ने भी रुख बदल डाला। धम प्रचार के साथ-साथ परोपकार को उन्होंने स्वीकार किया, श्रावक आदि के बालकों को वे शिक्षा देने लगे, जन्मपत्री बनाना, मुहूर्तादि बतलाना, रोगों के प्रतिकारार्थ औषधोपचार चालू करने लगे, जिनसे उनकी मान्यता पूर्ववत् बनी रहे।
उनकी विद्वत्ता की धाक राज-दरबारों में भी अच्छी जमी हुई थी, अत: राजाओं से उन्हें अच्छा सम्मान प्राप्त था, अपने चमत्कारों से उन्होंने काफी प्रभाव बढ़ा रखा था। इस राज्य-सम्बन्ध एवं प्रभाव के कारण जब स्थानकवासी मत निकला, तब उनके साधुओं के लिये इन्होंने बीकानेर, जोधपुर आदि से ऐसे आज्ञापत्र भी जारी करवा दिये, जिनसे वे उन राज्यों में प्रवेश भी नहीं कर सकें।
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