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जैन यति परम्परा
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परिणत नहीं कर सके। उनके तिरोभाव के बाद उनके सुयोग्य शिष्य श्री जिनचन्द्रसूरि ने अपने गुरुदेव की अन्तिम आदर्श भावना को सफलीभूत बनाने के लिए वि० सं० १६१३ में बीकानेर में क्रिया-उद्धार किया। इसी प्रकार तपागच्छ में आनन्दविमलसूरि ने सं० १५८२ में, नागोरी तपागच्छ के पावचन्द्रसूरि ने सं० १५६५ में, अंचलगच्छ के धर्ममूतिसूरि ने सं० १६१४ में क्रिया-उद्धार किया।
सत्रहवीं शताब्दी में साध्वाचार यथारीति पालन होने लगा। पर वह परम्परा भी अधिक दिन कायम नहीं रह सकी, फिर उसी शिथिलता का आगमन होना शुरू हो गया, १६८७ के दुष्काल का भी इसमें कुछ हाथ था।
___ अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में शिथिलता का रूप प्रत्यक्ष दिखायी देने लगा, खरतरगच्छ में जिनरत्नसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि ने शिथिलाचार पर नियन्त्रण करने के लिए सं० १७१८ की विजयादशमी को कुछ नियम
१. विशेष जानने के लिये देखें, हमारे द्वारा लिखित 'युग प्रधान जिनचन्द्रसूरि'। २. इस दुष्काल का विशद वर्णन कविवर समयसुन्दर ने किया है। इस दुष्काल के प्रभाव से उत्पन्न हुई शिथिलता के
परिहारार्थ समयसुन्दरजी ने सं० १६८२ में क्रिया उद्धार किया था। ३. समय-समय पर गच्छ की सुव्यवस्था के लिए ऐसे कई व्यवस्था पत्र तपा और खरतर गच्छ के आचार्यों ने जारी
किये, जिनमें से प्रकाशित व्यवस्था-पत्रों की सूची इस प्रकार है(क) जिनप्रभसूरि (चौदहवीं शताब्दी) का व्यवस्थापत्र (प्र. जिनदत्तसूरि चरित्र जयसागरसूरि लि.) (ख) तपा सोमसुन्दरसूरि-रचित संविज्ञ साधु योग्य कुलक के नियम (प्र. जैनधर्मप्रकाश, वर्ष ५२, अंक ३, पृ० ३) (ग) सं० १५८३ ज्येष्ठ, पट्टन में तपागच्छीय आनन्दविमलसूरि का 'मर्यादापट्टक' (प्र. जैन सत्यप्रकाश, वर्ष
२, अंक ३, पृ० ११२) (घ) सं० १६१३ जिनचन्द्रसूरि का क्रिया उद्धार नियम पत्र (प्र० हमारे द्वारा लि० युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि) (ङ) सं० १६४६ पो० सु० १३ पत्तनं हीरविजयसूरि पट्टक ( जैन सत्य प्रकाश, वर्ष २, अंक २, पृ० ७५) (च) सं० १६७७ वै० सु० ७ सावली में विजयदेवसूरि का साधु मर्यादा पट्टक (प्र. जैन धर्म प्रकाश, वर्ष ५२,
अंक १, पृ० १७)। (छ) सं १७११ मा० सु० १३ पतन, विजयसिंहसूरि (प्र. जैन धर्म प्रकाश, वर्ष ५२, अंक २, पृ० ५५) (ज) सं० १७३८ मा० सु० ६ विजयक्षमासूरि पट्टक (जैन सत्यप्रकाश, वर्ष, २ अंक ६ पृ० ३७८) (झ) उपर्युक्त जिनचन्द्रसूरि का पत्र अप्रकाशित हमारे संग्रह में है । इन मर्यादा पट्टकों से तत्कालीन यति समाज
की अवस्था का बहुत कुछ परिचय मिलता है। नं० 'झ' व्यवस्थापत्र अप्रकाशित होने के कारण उससे
तत्कालीन परिस्थिति का जो तथ्य प्रकट होता है वह नीचे लिखा जाता है(अ) यतियों में क्रय-विक्रय की प्रथा जोर पर हो चली थी, श्रावकों की भाँति ब्याज-बट्टे का काम भी जारी
हो चुका था, पुस्तकें लिख कर बेचने लगे थे। शिक्षादि का भी क्रय-विक्रय होता था। (आ) वे उद्भट उज्ज्वल वेष धारण करते थे। हाथ में धारण करने वाले डण्डे के ऊपर दांत का मोगरा और
नीचे लोहे की सांब भी रखते थे। (इ) यति लोग पुस्तकों के भार को वहन करने के लिए शकट, ऊँट, नौकर आदि साथ लेते थे। . (ई) ज्योतिष, वैद्यक आदि का प्रयोग करते थे, जन्म-पत्रियाँ बनाते व औषधादि देते । (उ) धातु का भाजन, धातु की प्रतिमादि रख पूजन करते थे। (3) सात-आठ वर्ष से छोटे एवं अशुद्ध जाति के बालकों को शिष्य बना लेते थे. लोच करने एवं प्रतिक्रमण
करने की शिथिलता थी। (ए) साध्वियों को विहार में साथ रखते थे। ब्रह्मचर्य यथारीति पालन नहीं करते थे। (ऐ) परस्पर झगड़ा करते थे, एक-दूसरे की निन्दा करते थे। (अठारहवीं शताब्दी के यति और श्रीपूज्यों के
पारस्परिक युद्धों तथा मार-पीट के दो बृहद वर्णन हमारे संग्रह में भी हैं।)
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