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आगम-पाठ संशोधन: एक समस्या, एक समाधान
0 मुनि श्री दुलहराज युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के शिष्य
जैन आगमों का इतिहास पचीस सौ वर्ष पुराना है । वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी से पूर्व तक आगमों का व्यवस्थित लेखन नहीं हो पाया था, प्रवचन के माध्यम से गुरु अपने शिष्य को और शिष्य अपने शिष्य को आगम-वाचना देते और इस प्रकार आगमों का अस्खलित रूप से हस्तान्तरण होता रहता। वीरनिर्वाण की दसवीं शताब्दी के अन्त में महामेधावी आचार्य देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने एक संगीति बुलाई और उसमें आगम-पाठों क संकलन, व्यवस्थीकरण और सम्पादन किया। यह आगम-वाचना अन्तिम और निर्णायक मानी गई।
इस वाचना के विषय में हमें यह स्पष्ट जान लेना चाहिए कि हजार वर्षों से मौखिक परम्परा के रूप में चली आ रही भगवान महावीर की वाणी के अनेक स्थल पूर्ण विस्मृत हो गए, अनेक स्थल अर्द्ध विस्मृत से हुए और बहुत भाग स्मृति-परम्परा से अक्ष ण्ण रहा । दूरदर्शी आचार्य देवद्धिगणी ने अपने समय के सभी विशिष्ट आचार्यो, उपाध्यायों
और मुनियों को एक मंच पर एकत्रित कर उनके कण्ठस्थ ज्ञान को एक बार लिपिबद्ध कर डाला। सब संकलित हो जाने पर स्वयं आचार्य ने या उस समय के निर्दिष्ट मुनि-मण्डल (Board) ने उस संकलित आगम-पाठ का संपादन किया । संपादन काल में पाठों में काट-छाँट हुई तथा उनको व्यवस्थित करने का उपक्रम हुआ। साथ-साथ आचार्यमण्डल ने गत दस शताब्दियों की प्रमुख घटनाओं को भी आगमों में यत्र-तत्र जोड़कर उनको प्रामाणिक रूप दे डाला।
यह पन्द्रह सौ वर्ष पुरानी बात है । इस उपक्रम से आगमों का रूप सदा के लिए निश्चित हो गया। तत्पश्चात् किसी आचार्य ने पाठों में हेर-फेर तो नहीं किया, किन्तु विस्तार का संक्षेप अवश्य किया है। वर्तमान में उपलब्ध आदर्श इसके प्रमाण हैं।
देवद्धिगणी की आगम-वाचना के बाद आगमों की प्रतियाँ लिखी जाने लगीं। प्रतिलिपिकरण को पुण्य-कार्य माना गया और तब अनेक व्यक्ति इस कार्य में जुट गये । एक-एक धनी व्यक्ति ने हजारों-हजारों प्रतियाँ तैयार करवाई। लिपीकरण की यह प्रक्रिया तीव्रगति से तब तक चलती रही जब तक कि मुद्रण-यन्त्रों का प्रादुर्भाव नहीं हुआ।
इसका फलित यह हुआ कि लगभग एक शताब्दी पूर्व तक लिपीकरण की प्रक्रिया चलती रही । लिपीकरण के चौदह सौ वर्षों के इस दीर्घकाल में आगम-पाठों में बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया। इसके मुख्य कारण ये हैं
(१) प्रतिलिपि करने वालों के सामने जो प्रति रही उसी के अनुसार प्रति तैयार करना ।
(२) लिखते-लिखते प्रभादवश या लिपि को पूरा न समझ सकने के कारण अक्षरों का व्यत्यय हो जाना, वर्णविपर्यय हो जाना।
(३) दृष्टिदोष के कारण पद्य या गद्य के अंशों का छूट जाना या स्थानान्तरित हो जाना। (४) लिपि करते समय पाठ के पौर्वापर्य का विमर्श न कर पाना।
(५) लिखते समय संक्षेपीकरण की स्वाभाविक मनोवृत्ति के कारण 'जाव' या 'एवं' आदि शब्दों से अनेक पद्यों या गद्यांशों को संगृहीत कर लेना।
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