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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
महाराजा अभयसिंह ने सरबुलन्द से युद्ध किया । तीन दिन तक घमासान लड़ाई हुई । आखिर चौथे दिन सरबुलन्द की सेना के पाँव उखड़ गये । उसने महाराजा अभयसिंह के सम्मुख आत्मसमर्पण किया। नींबाज ठाकुर अमरसिंह ऊदावत ने इस सन्धि समझौते में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अहमदाबाद विजय की यह घटना विजयदशमी विक्रम संवत् १७८७ (१० अक्टूबर, सन् १७३०) की है।
सत्तर समत सत्यासियो, आसू उज्जल पक्ख ।
विजै दसम भागा विचित्र, अभै प्रतिग्या अक्ख ।। गुजरात के सूबेदार सरबुलन्दखों के साथ हुए इस युद्ध में जोधपुर के महाराजा अभयसिंह की फौज में कई जैन महत्त्वपूर्ण सैनिक पदों पर नियत थे। बांकीदाम लिखता है कि वि० सं० १७८७ आश्विन सुदि ७ (७ अक्टूबर सन् १७३०) को कोचरपालडी पहुंचने पर अहमदाबाद नगर तथा भद्र के किले पर पाँच मोर्चे लगाये गये । एक मोर्चे में अभयकरण करणोत, चांपावत महासिंह पोकरण तथा भागीरथ दास आदि, दूसरे में शेरसिंह सरदारसिंहोत मेडतिया, प्रतापसिंह जोधा खैरवा तथा पुरोहित केसरीसिह आदि, तीसरे में मारोठ तथा चौरासी के मेडतिये एवं भण्डारी विजयराज, चौथे में गुजराती सैनिक एवं रत्नसिंह भण्डारी और पाँचवें मोर्चे में दीवान पंचोली लाला आदि थे।
___ अक्टूबर, १७३० में ही रत्नसिंह भण्डारी ने भद्र के किले (गुजरात) में प्रवेश कर वहाँ आधिपत्य स्थापित किया। कैम्पबेलकृत 'गैजेटियर आफ् दी बोम्बे प्रेसीडेन्सी' में लिखा है कि अहमदाबाद में प्रवेश करने पर महाराजा ने रत्नसिंह भण्डारी को अपना नायब मुकर्रर किया। जोधपुर राज्य की ख्यात से भी इस बात की पुष्टि होती है। इसमें अहमदाबाद के सूबे पर अभयसिंह का अमल होने, उसके शाही बाग में ठहरने और नायब का पद भण्डारी रत्नसिंह को देने का उल्लेख है।
इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि अहमदाबाद के युद्ध में सरबुलन्द को परास्त करने में जैन सैनिक पदाधिकारियों ने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । विजयराज भण्डारी और रत्नसिंह भण्डारी महाराजा के विश्वास-पात्र व्यक्तियों में से थे। उनकी वीरता और नीतिज्ञता के कारण ही उन्हें सेना के उच्च पदों पर नियुक्त किया गया । इतना ही नहीं निर्णय लेने के महत्त्वपूर्ण अवसरों पर भी महाराजा अभयसिंह इन जैन राजनीतिज्ञों पर कार्यभार डाल निश्चिन्त हो जाया करते थे। उदाहरण के लिए बाजीराव से गुजरात की चौथ के सम्बन्ध में कौल-करार करने के लिए महाराजा ने अपनी ओर से शत तय करने के लिए भण्डारी गिरधरदास और रत्नसिंह भण्डारी को प्रतिनिधि के रूप में भेजा । महाराजा अभयसिंह जब अहमदाबाद से प्रस्थान कर माही नदी के उत्तर में बड़ौदा जिले में पहुंचे तथा बड़ौदा पर जब अधिकार कर लिया तो जीवराज भण्डारी को, बड़ौदा के मालदार आदमियों को कैद कर, उनसे धन वसूल करने के लिए नियुक्त किया।
___ खांडेराव दाभाडे को गुजरात की चौथ उगाहने का हक प्राप्त था। खांडेराव तो युद्ध में मुकाबला करता हुआ मारा गया परन्तु उनकी विधवा पत्नी उमाबाई बड़ी साहसी महिला थी। उमाबाई ने आस-पास के प्रदेश की चौथ वसूल करने के लिए पीलाजी गायकवाड को नियत किया। महाराजा अभयसिंह ने पीलाजी गायकवाड को छल से मरवा डाला तो उमाबाई घायल शेरनी की भाँति उग्र हो उठी और उसने महाराजा पर चढ़ाई कर दी। इस मुकाबले में भी मारवाड़ के अन्य जागीरदारों व सैनिकों के साथ जैन सेनानायकों ने न केवल कन्धे से कन्धा मिलाकर युद्ध किया बल्कि जब उन्हें यह पता लगा कि महराज ने डेढ़ लाख रुपये देकर उमाबाई से समझौता कर लिया है तो यह बात भण्डारी रत्नसिंह, भण्डारी विजयराज, मेहता जीवराज, पंचोली लालजी आदि को पसन्द नहीं आई और उन्होंने दूसरे दिन उमाबाई की फौज पर चढ़ाई कर दी। इस युद्ध में मेहता जीवराज अपने कई साथियों के साथ वीर-गति को प्राप्त हुए । इस घटना से यह स्पष्ट होता है कि अपमानजनक समझौता करने की अपेक्षा युद्ध-भूमि में वीरतापूर्वक लड़कर सर्वस्व बलिदान देने वाले क्षत्रियों की परम्परा की अनुपालना करने में भी जैन सेनानायक पीछे नहीं रहे।
१ जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग २, डा० ओझा, पृ० २१४.
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