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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
स्वभावदर्शन-जिस प्रकार ज्ञान आत्मा का सहज और स्वाभाविक गुण होता है, उसी प्रकार दर्शन भो आत्मा का स्वाभाविक उपयोग है। स्वभावदर्शन पूर्ण और प्रत्यक्ष होता है इस कारण इसे केवलदर्शन भी कहा जाता है।
चक्षुदर्शन-यह नेत्रों के माध्यम से होने वाला ऐसा दर्शन है जो निर्विकल्प भी है और निराकार भी। स्पष्ट है कि इन्द्रिय सहायता इस दर्शन में विद्यमान रहती है, इसमें नेत्रों की प्रधानता होती है। अतः इसे चक्षुदर्शन कहा गया है।
____ अचक्षुदर्शन-विभावदर्शन के अन्तर्गत इस द्वितीय उपभेद में नेत्रों के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों की सहायता अपेक्षित रहती है। इन इतर इन्द्रियों और मन से यह दर्शन सम्पन्न होता है।
अवधिदर्शन-अवधिदर्शन सीधा आत्मा से होने वाला दर्शन है और यह रूपी पदार्थों का होता है। आत्मा के उपयोगेतर गुण
आचार्य देवसेन ने आत्मा के स्वरूप को गहनता के साथ विवेचित एवं विश्लेषित किया है। आलाप पद्धति में आचार्य देवसेन आत्मा के लक्षणों को निम्नानुसार प्रदर्शित किया
ज्ञान दर्शन सुख वीर्य चेतनत्व अमूर्तत्व
उपर्युक्त प्रथम दो लक्षण आत्मा के उपयोग के अन्तर्गत आ जाते हैं। इसी रूप में इन दो लक्षणों को गिनाते हुए आचार्य नेमिचन्द्र आत्मा के लक्षणों को इस प्रकार प्रस्पुत करते हैंउपयोगमयी
अमूत्तिक
कर्ता स्वदेहपरिमाण
भोक्ता
ऊर्ध्वगमन
संसारी आत्मा और उपयोग (अर्थात् ज्ञान एवं दर्शन) का अविच्छिन्न सम्बन्ध तो सभी विचारकों द्वारा स्वीकृत हुआ है, यहाँ तक वणित किया गया है कि जहाँ उपयोग है। वहाँ जीवत्व है, आत्मा चाहे संसारी हो अथवा सिद्ध, उपयोग का लक्षण तो उससे प्रत्येक परिस्थिति में सम्बद्ध रहा ही करता है । यदि यह सत्य है कि जहाँ जीव है वहाँ निश्चित रूप से उपयोग है तो यह भी एक तथ्य है कि उपयोग (ज्ञान) भी जीव के साथ ही रहता है, अन्यत्र कहीं नहीं । सामान्यतः आत्मा का यही प्रधान स्वरूप है। उपयोगमय ऐसे जीवों के दो भेद किये गये हैं-मुक्त और संसारी ।
___ मुक्त जीव का लक्षण स्वभावोपयोगी है । आचार्य नेमिचन्द्र ने आत्मा के मुक्तरूप को ही (सिद्ध) कहा है। निर्जरा द्वारा कर्ममल का क्षय करके जीव सिद्ध गति प्राप्त करता है। इस कारण सर्वथा शुद्ध रूप में आत्मा का अस्तित्व सिद्धों में पाया जाता है, यही मुक्त आत्मा है। इसके वितरीत संसारी आत्मा में कर्ममल लिप्त रहता है । वादिदेव सुरि ने संसारी आत्मा के स्वरूप विवेचन में कथन किया है
___ "चैतन्य स्वरूप: परिणामी कर्ता साक्षात् भोक्ता स्वदेहारिमाण: प्रतिक्षेत्रम् भिन्नः पौद्गलिकदृष्ट्वांश्चायम् ।"
अर्थात्-आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है, वह चैतन्यस्वरूप है, परिणामी है, कर्ता है, साक्षात् भोक्ता है, स्वदेहपरिमाण है—प्रत्येक शरीर में भिन्न है, पौद्गलिक कर्मों से युक्त है । संसारी आत्मा के उपर्युक्त स्वरूप विवेचन में वस्तुत: आत्मा के स्वरूपगत वे सारे लक्षण समाविष्ट हो जाते हैं, जिन्हें जैन आध्यात्मिक मान्यता प्राप्त है । जैन दर्शनान्तर्गत आत्मा के स्वरूप को हृदयंगम करने के लिए यह विवेचन सर्वथा सहायक सिद्ध होता है।
प्रत्यक्ष प्रमाणों से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध है-इसका तात्पर्य यह है शरीर आदि से पृथक् और स्वतन्त्र अस्तित्व आत्मा का सहज लक्षण है । चार्वाक आदि कतिपय भौतिकतावादी विचारकों के मतानुसार आत्मा का स्वतन्त्र
सिद्ध
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