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________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा ४०६. .......................................................................... साणरुय (श्वानरुत)-अज्ञातकर्तृक । इसमें कुत्ते की विभिन्न आवाजों के आधार पर गमन-आगमन, जीवित-मरण आदि का वर्णन है। सिद्धादेश-अज्ञातकर्तृक । इसमें वर्षा, वायु, विद्युत के शुभाशुभ फल दिये हैं । उपस्सुइदार (उपश्रुतिद्वार)-अज्ञातकर्तृक । इसमें सुने शब्दों के आधार पर शुभाशुभ फल दिये हैं। छायादार (छायाद्वार)-अज्ञातकर्तृक । छाया के आधार पर शुभाशुभ फल दिये हैं। नाडीदार (नाडीद्वार)-अज्ञातकर्तृक । इडा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों के विषय में वर्णन है। निमित्तदार (निमित्तद्वार)—अज्ञातकर्तृक । निमित्तों का वर्णन है। रिट्ठदार (रिष्टद्वार)-अज्ञातकर्तृक । जीवन-मरण का फलादेश है। पिपीलियानाण (पिपीलिकाज्ञान)-अज्ञातकर्तृक । चींटियों की गति देखकर शुभाशुभ फल बताये हैं। प्रणष्टलाभादि-अज्ञातकर्तृक । प्राकृत में । गतवस्तुलाभ, बन्ध-मुक्ति, रोग, जीवन-मरण का विचार है। नाडीविज्ञान-अज्ञातकर्तृक । संस्कृत में । नाडियों की गति से शुभाशुभ फल दिये हैं। नाडी वियार (नाडीविचार)-अज्ञातकर्तृक । प्राकृत में। कार्यानुसार दायी या बायीं नाड़ी के शुभाशुभ फल बताये हैं। मेघमाला-अज्ञातकर्तक । प्राकृत में । नक्षत्रों के आधार पर वर्षा के चिह्नों और उनके शुभाशुभ फल बताये हैं। छींकविचार-अज्ञातकर्तृक । प्राकृत में। छींक के शुभाशुभ फल दिये हैं। लोकविजयतंत्र—अज्ञातकर्तृ क । प्राकृत में । सुभिक्ष और दुर्भिक्ष का विचार है । ध्रुवों के आधार पर शुभाशुभ फल दिये हैं। सुविणवार(स्वप्नद्वार)—अज्ञातकर्तृक । प्राकृत में । स्वप्नों के शुभाशुभ फल दिये हैं। सुमिणसत्तरिया (स्वप्नसप्ततिका)-अज्ञातकर्तृक । प्राकृत में । स्वप्न के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन है। इस पर जैसलमेर में सं० १२८७ (१२३० ई०) में खरतरगच्छीय सर्वदेवसूरि ने वृत्ति की रचना की है। जिनपालगणि-इन्होंने सुविणविचार नामक स्वप्नशास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थ ८७५ गाथाओं में लिखा है। जगदेव (११वीं शती) यह गुजरात के राजा कुमारपाल के मंत्री दुर्लभराज का पुत्र था। पिता-पुत्र को इस राजा का आश्रय प्राप्त था। इनका स्वप्नशास्त्र ग्रन्थ है। वर्धमानसरि-यह रुद्रपल्लीय गच्छ के मुनि थे । इन्होंने स्वप्नों के सम्बन्ध में स्वप्नप्रदीप या स्वप्नविचार ग्रन्थ लिखा है। इसमें ४ 'उद्योत' हैं-दैवतस्वप्न, द्वासप्ततिमहास्वप्न, शुभस्वप्न, अशुभस्वप्न । वर्धमानसूरि (११वीं शती)—यह आचार्य अभयदेवसूरि (सं० ११२०) के शिष्य थे। इनका शकुनशास्त्र पर शकुनरत्नावलि-कथाकोश नामक ग्रन्थ है। आचार्य हेमचन्द्रसूरि (१२वीं शती)- इनका शकुन सम्बन्धी शकुनावलि ग्रन्थ प्राप्त है । जिनदत्तसूरि (१२१३ ई०)-वायडगच्छीय जैन मुनि थे, इन्होंने सं० १२७० में विवेकविलास की रचना की थी। शकुनशास्त्र पर इन्होंने शकुनरहस्य संस्कृत पद्यों में ग्रन्थ लिखा है । इसमें प्रस्ताव हैं। माणिक्यसूरि (१२८१ ई०)-इन्होंने सं० १३३८ में शकुनशास्त्र या शकुनसारोद्धार ग्रन्थ लिखा है। पार्श्वचन्द-ये आचार्य चंद्रसूरि के शिष्य थे। इन्होंने निमित्तशास्त्र पर हस्तकांड ग्रन्थ की रचना की है। इसमें सौ पद्य हैं। सउणदार (शकुनद्वार)—अज्ञातकर्तृक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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