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राजस्थानी जैन साहित्य की रूप-परम्परा
डॉ. मनमोहनस्वरूप माथुर, प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, आई० बी० कॉलेज, पानीपत (हरियाणा)
विश्व-फलक पर राजस्थान की भूमि गौरवपूर्ण विविध रंगों को ग्रहण किये हुए है । वेशभूषा, खान-पान, रहनसहन, भाषा आदि में विविध सांस्कृतिक चेतना को समन्वित करने वाला यह अकेला प्रदेश है । यहाँ दुर्गा और सरस्वती एक ही पटल पर विराजमान हैं। यही कारण है कि राजस्थान के अणु-अणु में झंकृत रण-कंकण की ध्वनि और खड्गों की खनखनाहट के समान ही यहाँ के नगर-नगर, ग्राम-ग्राम में अवस्थित ज्ञान-भण्डारों में तथा जन-जिह्वा पर सरस्वती-सेवकों की गिरा सुरक्षित है। इन ज्ञान-भण्डारों में बैठकर राजस्थान के मूर्धन्य जैन विद्वानों ने विभिन्न विषयों पर साहित्य-निर्माण किया जिनमें उनके द्वारा विरचित भक्ति-साहित्य का अपना विशिष्ट महत्त्व है।
राजस्थान में जैनधर्म के प्रचार की जानकारी हमें महावीर स्वामी के निर्वाण के लगभग एक शती बाद से ही मिलने लगती है। पांचवीं-छठी शताब्दी तक यह व्यापक रूप से फैल गया। यही धर्म निरन्तर विकसित होता हुआ आज राजस्थान की भूमि पर स्वणिम रूप से आच्छादित है।
राजस्थान में मध्यमिका नगरी को प्राचीनतम जैन नगर कहा जाता है।' करहेड़ा, उदयपुर, रणकपुर, देलवाड़ा (माउण्ट आबू), देलवाड़ा (उदयपुर), जैसलमेर, नागदा आदि स्थानों में निर्मित जैन-मन्दिर राजस्थान में जैनधर्म की प्राचीनता को सिद्ध करते हैं। राजस्थान के साहित्यिक, राजनीतिक, धार्मिक, व्यापारिक और सामाजिक सभी क्षेत्रों में यहाँ के जैनियों का अपूर्व योगदान रहा है।
राजस्थान में जैनियों द्वारा लिखित साहित्य की परम्परा का आरम्भ ५वीं-६ठी शताब्दी से माना जा सकता है। ये मुनि प्राकृत-भाषा में साहित्य लिखते थे। प्रथम जैन साहित्यकार का गौरव भी राजस्थान की भूमि को ही प्राप्त कहा जाता है ।' आचार्य सिद्धसेन दिवाकर राजस्थान के प्राचीनतम साहित्यकार थे।
राजस्थान के जैन मुनियों को साहित्य के लिए प्रेरित किया यहाँ की राज्याश्रय प्रवृत्ति, धर्मभावना एवं गुरु और तीर्थंकरों की भावोत्कर्षक मूर्तियों ने। जैन परम्परा में उपाध्याय पद की इच्छा ने भी इन मुनियों को श्रेष्ठ साहित्य की रचना के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार श्रमण-संस्कृति के परिणामस्वरूप राजस्थान की इस पवित्र गौरवान्वित भूमि पर उत्कृष्ट कोटि का जैन-धामिक साहित्य का भी अपनी विशिष्ट शैलियों में सृजन होने लगा। अपनी साहित्यिक विशिष्टता के कारण यह साहित्य जैन-शैली नाम से जाना जाता है। जैन शैली के अद्यतन प्रमुख साहित्यकारों के नाम हैं-आचार्य सिद्धसेन, आचार्य हरिभद्र, उद्योतनसूरि, जिनेश्वरसूरि, महेश्वरसूरि, जिनदत्त सूरि, शालिभद्र, सूरि, नेमिचन्द्र सूरि, गुणपाल मुनि, विनयचन्द्र, सोममूति, अम्बदेव सूरि, जिनपद्म सूरि, तरुणप्रभ सूरि, मेरुनन्दन, राजेश्वर सूरि, जयशेखरसुरि, हीरानन्द सूरि, रत्नमन्डन गणि, जयसागर, कुशललाभ, समयसुन्दर गणि, ठक्कुर फेरू, जयसिंह मुनि, वाचक कल्याणतिलक, वाचक कुशलधीर, हीरकलश मुनि, मालदेवसूरि, नेमिचन्द भण्डारी, आचार्य श्री तुलसी, आचार्य श्री काल राज जी, आचार्य श्री घासीराम जी, आचार्य श्री आत्माराम जी प्रभृति ।।
१. मज्झमिका, प्रथम अंक. १९७३ ई० (डॉ. ब्रजमोहन जावलिया का लेख) २. पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० १६६
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