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संस्कृत जैन म्याकरण-परम्परा ३५६
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कातन्त्र विभ्रमटीका
लघुखरतरच्छ के प्रवर्तक आचार्य जिनसिंहरि के शिष्य आचार्य जिनप्रभसूरि ने इस ग्रन्थ की रचना की थी। वि० सं० १३५२ में योगिनीपुर (दिल्ली) में कायस्थ खेतल की प्रार्थना पर उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की थी । इसका उल्लेख उन्होंने निम्न पथ में किया है—
पक्षेषु
शक्ति शशिभून् भित्तविक्रमाब्दे, धाङ्कते हरतिथो परियोगिनीनाम् । कातन्त्रविभ्रम ह व्यनिष्ट टीकाम, अरवि
जिनप्रभसूरिरेताम् ॥
क्रियाकलाप
जिनदेवसूरि ने इस ग्रन्थ की रचना की थी। इसका सं०१५२० का एक हस्तलेख अहमदाबाद में प्राप्त है ।
चतुष्कव्यवहार दृष्टिका
इसके रचनाकार श्री धर्मप्रभसूरि थे । हस्तलेखों में इसका प्रकरणान्त भाग ही प्राप्त होता है ।
दुर्गपदप्रयोध वह ग्रन्थ सम्पूर्ण प्रयास किया है । दुर्गप्रबोध टीका
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ३, में डॉ० गुलाबचन्द्र चौधरी ने इस कृति का उल्लेख किया है। इसकी रचना वि० सं० १३२० में जनप्रबोध मूरि ने की थी। योगसिंह वृत्ति दुसिंहरचित वृत्ति पर यह ग्रन्थ लिखा गया है। ३००० श्लोक परिमाण के इस ग्रन्थ की रचना आचार्य प्रद्युम्नमूरि ने वि०सं० १३६६ में की थी । बीकानेर के भण्डार में इसका हस्तलेख विद्यमान है ।
जिनेश्वरसूरि के शिष्य प्रबोधमूर्ति गण ने १४वीं शताब्दी में इस ग्रन्थ की रचना की थी कातन्त्र व्याकरण के सूत्रों पर रचा गया है। ग्रन्थकार ने इसमें सभी मतों का सार समाविष्ट करने का
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बालावबोध अंगदेश्वरसूरि ने इसका प्रणयन किया था। इसके अनेक हस्तलेख अहमदाबाद, जोधपुर तथा बीकानेर के ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध हैं ।
राजगच्छीय हरिकलश उपाध्याय ने इसकी रचना की । इसके हस्तलेख बीकानेर में प्राप्त है ।
वृत्तित्रयनिबन्ध आचार्य राजशेखरसूरि ने इस ग्रन्थ का प्रणयन किया था। इसके नाम से यह ज्ञात होता है कि कातन्त्र व्याकरण की तीन वृत्तियों पर इसमें विचार किया गया होगा । ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । '
सारस्वत व्याकरण की टीकाएँ
अनुभूति स्वरूपाचार्य द्वारा प्रोक्त इस ग्रन्थ में ६०० सूत्र हैं । इस ग्रन्थ पर भी अनेक टीका ग्रन्थ लिखे गये 1 इनमें से अनेक ग्रन्थ जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत हैं। आगे इन्हीं पर संक्षेप में विचार किया जा रहा है ।
सुबोधिका नागपुरीय तपागच्छाधिराज भट्टारक आचार्य चन्द्रकीति ने इस ग्रन्थ की रचना की थी। यह कृति सारस्वत १. जैन साहित्य का बुद् इतिहास भाग ५ पृ०५२.
बालावबोध
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