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अभिभावकों का दायित्व
इरादे तो हैं मंजिल के, पर चलना नहीं आता । हमें कहना तो आता है, मगर करना नहीं आता ।।
केवल कल्पना की उड़ानें भरने से कुछ नहीं होगा। किसी भी कार्य की सिद्धि के लिये स्वयं को खपना-तपना होगा तब ही मन इच्छित कामना सफल हो सकती है । अतः माता-पिता स्वयं जागरूक बनकर बच्चों की ओर ध्यान दें। क्योंकि कोई भी बच्चा जन्म के साथ कुछ नहीं लाता, वह जैसे-जैसे बड़ा होता है वैसे-वैसे वातावरण का अंकन करता जाता है। बच्चे की प्राथमिक पाठशाला माता-पिता ही होते हैं । उसमें भी माता का प्रभाव अधिक पड़ता है वस्तुतः माँ ही बच्चे की सच्ची शिक्षिका एवं संरक्षिका होती है। अस्तु माता का जागरूक होना परमोपयोगी है, इसलिये कि यह बच्चे की समुचित आदतों, मनोवृत्तियों एवं कल्पनाशक्ति को विकसित करने में सक्षम हो । जितना बच्चे का अध्यापन माता कर सकती है उतना और कोई नहीं। क्योंकि गर्भकाल से लेकर शैशव और किशोर अवस्था तक बच्चे को सुसंस्कारवान् बनाने में माँ ही उत्तरदायी होती है। जम्मघूंटी के साथ दी गई पुष्ट खुराक जीवन निर्माण में बहुत ही उपयोगी एवं सम्बलदायक बन सकती है ।
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लेकिन अधिकांश माता-पिता बच्चों की ओर ध्यान तक नहीं देते, क्योंकि उन्हें अपने कार्य से फुरसत ही नहीं मिलती । बच्चा जब बिगड़ जाता है, बुरी आदतों का शिकार हो जाता है, जैसे-झूठ बोलना, छोटी-मोटी चोरी करना, झगड़ालू होना, अपनी जिद पर डटे रहना आदि-आदि इन सब हरकतों को देख जब ऊब जाते हैं तब बिगड़ती हुई आदतों को सुधारने के लिये प्रयास करते हैं लेकिन मुरुआत में ही यदि ध्यान दिया जाये तो ये गन्दी आदतें आ ही नहीं सकती। किन्तु प्रारम्भ में अत्यधिक लाड़-प्यार किया जाता है इससे बच्चा बिगड़ जाता है फिर बाद में सुधारने में टाइम लगता है । देखा जाता है अतिप्यार बच्चे को सुधारने की अपेक्षा बिगाड़ता है । इसलिये माता-पिता मनोविज्ञान के आधार पर बच्चे का निर्माण करें तो भविष्य में अपने आपको और बच्चे को परेशानियाँ उठानी न पड़ें। बालक की बुनियादी शिक्षा को सही दिशा प्रदान करना, अभिभावकों का प्रथम दायित्व होता है। माता-पिता द्वारा पाई गई शिक्षा जीवनपर्यन्त अमिट छाप छोड़ जाती है और विद्यालय की शिक्षा से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण परेल शिक्षा हो सकती है, पर खेद है कि अधिकांश माता-पिता सोचते हैं कि बच्चा बड़ा होगा और स्कूल में पढ़ने जायेगा तब अपने आप ही होशियार हो जायेगा और साथ ही शिक्षा देना विद्यालयों का कार्य है । वे अपना कार्य समझते ही नहीं किन्तु यह नहीं सोचते हैं कि प्राथमिक शिक्षा बालक को विद्यालय में प्रवेश के लिये अधिक सक्षम बनाती है और साथ ही साथ जीवन की ऊर्ध्वमुखी प्रगति में सहायक बनती है । पारिवारिक शिक्षा बच्चे में अच्छे से अच्छे सद्संस्कार डालती है जबकि विद्यालय की शिक्षा उसकी समझदारी चातुर्यता में चार चाँद लगाती है । बचपन में अच्छे संस्कारों की पकड़ विद्यालय की शिक्षा से अधिक प्रभावशाली होती है। बच्चे के योग्य संस्कार अच्छी सुन्दरता का परिचय देते हैं। अस्तु, बच्चे को संकीर्ण विचारों से दूर रखें, कुसंस्कारों में न पड़ने दें, इस ओर जागरूक रहना माता-पिता का प्रथम कर्त्तव्य है । क्योंकि बच्चों की कल्पनाशक्ति बड़ी प्रखर होती है। बच्चों के सामने जब-जब नये प्रसंग उपस्थित होते हैं तब फौरन बच्चों का दिमाग कल्पना- लोक में उड़ानें भरने लगता है । नाना प्रकार के प्रश्न, प्रति प्रश्न उसके सामने उपस्थित होते हैं । जब तक उनका समाधान नहीं पा लेता, तब तक उसको चैन नहीं पड़ता । अतः प्रारम्भिक स्तर पर पूर्ण जागरूकता बरतें तो जीवनशक्ति का यथोचित विकास किया जा सकता है। आवश्यकता है माता-पिता अपनी व्यस्तता के नाम पर बच्चों का जीवन बनाने में उपेक्षा के भाव न रखें बल्कि मनोरंजन के लिये प्रोत्साहित करें और साथ ही साथ ज्ञानवर्धक महापुरुषों की जीवनी, उत्साहवर्धक रोचक छोटी-छोटी कहानियाँ, एवं धार्मिक संस्कार अवश्य डालें। बच्चे ज्यादातर अनुकरणप्रिय होते हैं । उनमें समझ कम होती है, भले-बुरे का चिन्तन वे नहीं कर सकते इसलिये बच्चों के सामने ऐसे कार्य कभी न करें जिससे बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़े। गाली गलोज अभद्र व्यवहार भी न करें क्योंकि बच्चे इतनी शीघ्रता से पकड़ते हैं कि आप कल्पना नहीं कर सकते । हमने देखा है कि छोटे-छोटे बच्चों की जुबान पर इतने अभद्र शब्द आते हैं कि सुनकर आश्चर्य होता है। पूछने पर पता चला कि ये गन्दे शब्द कहाँ से सीखे तो उसने फौरन जवाब
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