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राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्यकार
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(१७) पं० आशाधर-पं० आशाधर मूलत: मण्डलगढ़ (मेवाड़) के निवासी थे। आपके पिता का नाम सलक्खण एवं माता का नाम श्रीरत्नी था। आपकी पत्नी सरस्वती एवं पुत्र छाहड़ था। शहाबुद्दीन गौरी द्वारा अजमेर एवं दिल्ली पर अधिकार कर लेने के कारण धारा नगरी चले गये वहाँ से नलकच्छपुर (नालछा) चले गये। नलकच्छपुर में अध्ययन अध्यापन करते रहे । सं० १२८२ में आप नलकच्छपुर से सलखण चले गये।
आपकी गति न्याय, व्याकरण, काव्य, अलंकार आदि में थी। आपकी सर्वतोमुखी प्रतिभा के परिणामस्वरूप १८ ग्रन्थ रत्नों की सृष्टि हुई। उनके नाम क्रमश: निम्न हैं:१. प्रमेयरत्नाकर
२. भरतेश्वराभ्युदय ३. ज्ञानदीपिका
४. राजमतीविप्रलम्भ ५. अध्यात्मरहस्य
६. मूलराधना टीका ७. इष्टोपदेश टीका
८. आराधनासार टीका ९. अमरकोश टीका
१०. भूपान चतुर्विंशति टीका ११. क्रियाकलाप
१२. काव्यालंकार टीका १३. जिनसहस्रनाम
१४. जिनपंजर काव्य १५. त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र
१६. रत्नत्रय विधान १७. सागार धर्मामृत
१८. अनागार धर्मामृत उपर्युक्त ग्रन्थों में से प्रमेयरत्नाकर, भरतेश्वराभ्युदय, ज्ञानदीपिका, राजमतीविप्रलंभ, अमरकोशटीका आदि ग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध हैं। शेष में जिनपंजरकाव्य एवं जिनसहस्रनाम स्तोत्र हैं ।
___ अध्यात्मरहस्य दर्शन का ग्रन्थ है। इसमें आशाधर ने बहिरात्मा-अन्तरात्मा एवं परमात्मा के स्थान पर स्वात्मा, शुद्धात्मा एवं परब्रह्म नामक भेद किये हैं। त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र की रचना जाजक पण्डित की प्रेरणा से हुई। इसमें प्रेसठ शलाका पुरुषों का जीवनचरित्र संक्षेप में वणित है। सागार धर्मामृत में गृहस्थ जीवन की आचार संहिता तथा अनागार धर्मामृत में मुनि जीबन की आचार संहिता का वर्णन है। उक्त दोनों ग्रन्थों की रचना क्रमशः सं० १२९६ एवं सं० १३०० हुई।
(१८) वाग्भट्ट-प्रस्तुत वाग्भट्ट अष्टांगहृदयकार, नेमिनिर्वाण महाकाव्यकार तथा वाग्भट्टालंकार-कर्ता तीनों ही वाग्भट्टों से भिन्न हैं । आप माक्कलय के पौत्र नेमिकुमार के पुत्र थे।
आपकी दो वृत्तियाँ प्रसिद्ध हैं-छन्दोऽनुशासन एवं काव्यानुशासन । छन्दोऽनुशासन १. संज्ञाध्याय, २. समवृत्तरूप ३. अर्धसमवृत्त, ४. मात्रासमक, ५. मात्राछन्दक नामक पाँच अध्यायों में विभक्त है। २८६ सूत्रों के काव्यानुशासन में रस, अलंकार, छन्द, गुण, दोष आदि का कथन किया गया है। स्वरचित स्वोपज्ञ टीका में परम्परानुसार विभिन्न ग्रन्थों के पद्य उदाहरण रूप में दिये गये हैं।
इन दोनों ग्रन्थों से ज्ञात होता है आप काव्यशास्त्र के उत्कृष्ट कोटि के विद्वान् थे।
(१६) अभयतिलक-१३वीं एवं १४वीं शती में वर्तमान अभय तिलकोपाध्याय ने जिनेश्वर सूरि को अपना गुरु बनाया। १२९१ में दीक्षित होने के पश्चात् १३१६ में उपाध्याय पद प्राप्त किया।
१. म्लेच्छेशेन सपादलक्षविषये व्याप्तिसुवृत्तक्षिति
त्रासान्विन्ध्य नरेन्द्रदौः परिमलस्फूर्जस्त्रितर्गोजसि ॥ प्राप्तोमालवमण्डले बहुपरीवारः पुरीमाबासन् ।
योधारामपठज्जिनप्रमिति वाक्यशास्त्र महावीरतः ।। २. श्रीमदर्जून भूपालराज्ये श्रावकसंकुले ।
जैनधर्मोदयार्थ यो नलकच्छपुरेऽवसत् ॥
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