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________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा उल्लेख किया है। सिंहसूरि के संस्कृत अनुवादित ग्रन्थ में २२३० गावाएं और ११ विभाग हैं, इसमें से एक ज्योति लॉक सम्बन्धी है। शेष भूगोल एवं खगोल सम्बन्धी हैं। इसमें तिलोयपणत्ति, त्रिलोकसार आदि का उल्लेख होने से इसका रचनकाल ११वीं शती के बाद का है । त्रिलोकप्रज्ञप्ति (तिलोयपण्णत्ति ) - प्राकृत गाथाओं में यतिवृषभाचार्य द्वारा विरचित । इसमें ५६७७गाथाएँ और १ महाधिकार हैं— सामान्यलोक, नरकलोक, भवनवासीसोक, मनुष्यतोड, तिर्यकुलोक, व्यन्तरलोक, ज्योतिर्लोक, देवलोक और सिद्धलोक । वीरसेनकृत धवलाटीका में इस ग्रन्थ का अनेकशः उल्लेख मिलता है । अत: इसका रचनाकाल ५०० से ८०० ई० के बीच प्रमाणित होता है । ज्योतिर्लोक में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारों की स्थिति, गति आदि का वर्णन है। त्रिलोकसार —- नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्तिकृत | इसमें १०१८ प्राकृत गाथाएँ हैं । यह अध्यायों में विभक्त नहीं है, परन्तु इसमें विषयों सम्बन्धी की गयी प्रारम्भिक प्रतिशा के अनुसार विषयों का विवेचन है, जिसमें लोक-सामान्य, 7 भवन व्यन्तर, ज्योतिष वैमानिक और नर -तियंक लोक का वर्णन है। वर्णन संक्षिप्त है। यह ११वीं शती की रचना है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति - पद्मनन्दिकृत रचना है । इसमें २३८६ गाथाएँ हैं । इसमें १३ उद्देश्य हैं, जिनमें एक ज्योति -- लॉक है। शेष द्वीपों, खगोल, भूगोल सम्बन्धी हैं इसकी रचना पारियानदेशान्तर्गत वारा नगर में राजा संति या सत्ति के काल में हुई थी । पद्मनन्दि के गुरु बलिनंदि थे जो वीरनंदि के शिष्य थे । श्वेताम्बर परम्परा में इस विषय पर सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रशप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अतिरिक्त 'क्षेत्र समास' और 'संग्रहणी' नामक कृतियाँ मिलती हैं । इन दोनों के लेखक जिनभद्रगणी थे । परवर्ती विद्वानों और टीकाकारों ने इन दोनों ग्रन्थों के कई छोटे-बड़े संस्करण बना डाले हैं, इनमें जम्बूद्वीप, कालगणना आदि का वर्णन है । ४०१. धवला और जयधवला टीकाएँ- दक्षिण में आचार्य वीरसेन ई० ८वीं-हवीं शती के महान् दिगम्बर आचार्य हुए। उन्होंने धरसेनाचार्यकृत शौरसेनी प्राकृत के 'पट्खण्डागम' (कर्मप्राभृत) पर 'धवला' टीका ( रचना काल वि० सं० ८७३, ई० सन् ८१६) पाँच खण्डों में लिखी, इसमें ७२ हजार श्लोक हैं । इसके अतिरिक्त वीरसेन ने 'कषायपाहुड' पर २० हजार श्लोकों में व्याख्या लिखी किन्तु उनका स्वर्गवास हो जाने से यह अपूर्ण रह गयी । इसे उनके ही शिष् आचार्य जिनसेन ने ४० हजार श्लोक प्रमाण टीका और लिखकर पूर्ण किया कयायपाहुड' की रचना २३३ गाथाओं में आचार्य धरसेन के प्रायः समकालिक आचार्य गुणधर ने की थी । वीरसेन का जन्म वि० सं० हुआ था । I आचार्य वीरसेन के गुरु आर्यनन्दि थे वीरसेन के शिष्य आचार्य जिनसेन हुए और जिनसेन के शिष्य आचार्य गुणभद्र हुए। गुणभद्र ने उत्तरपुराण की रचना की । ७९५ (शक सं० ६६० ) और स्वर्गवास वि० सं०८८० (शक सं० ७४५ ) में गणित के अनेक नियमों को स्पष्ट किया है। अनेक सूत्रों का अर्थ और प्रयोजन गणित वीरसेनाचार्य अच्छे गणितज्ञ थे। उन्होंने अपनी टीकाओं में घरमा टीका में गणित सम्बन्धी विवेचन में परिकर्म का उल्लेख किया है। से स्पष्ट किया है। वीरसेनाचार्य का दृष्टिकोण वैज्ञानिक और गणितीय सिद्धान्तों पर आधारित था। ज्योतिष के भी इन टीकाओं में बड़ी संख्याओं का उपयोग वर्णन, शलाका गणन, विरलन देय गुणन, अनन्तराशियों का कलन, राशियों के विश्लेषण हेतु अनेक विधियों आदि विषय दिये हैं। Jain Education International इनमें ज्योतिष सम्बन्धी विचार भी स्पष्ट किये गये हैं । 'धवला' टीका में १५ मुहूर्त बताये हैं- रौद्र, श्वेत, मंत्र, सारगड, दैत्य, वैरोचन, वैश्वदेव, अभिजित्, रोहण, बल, विजय, नैऋत्य वरुण, अर्यमन और भागन 7 आचार्य वीरसेन के प्रायः समकालीन प्रसिद्ध गणित ज्योतिषाचार्य महावीर हुए, जो राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष 'पग' के सभासद थे। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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