________________
"५७८
कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
के वि० सं० १२८७ तेजपाल वाले शिलालेख में भी धर्कट जाति का उल्लेख है । इससे पता लगता है कि १०वीं से १३वीं शती तक यह वंश अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है। अतएव भविसयतकहा के लेखक धनपाल का होना इसी समय सम्भावित है।
काल-निर्णय-कवि धनपाल के समय के बारे में विभिन्न विद्वानों के अलग-अलग विचार हैं
(१) भाषा के आधार पर डॉ० हर्मन जेकोबी इन्हें १०वीं शती का मानते हैं। क्योंकि इनकी भाषा हरिभद्र सूरि के नेमिनाहचरिउ से मिलती है। मुनि जिनविजय ने हरिभद्र का समय ७०५ से ७७५ के बीच माना है।'
(२) श्री दलाल और गुणे के अनुसार भविसयतकहा की भाषा आचार्य हेमचन्द्र के व्याकरण में प्रयुक्त भाषा की अपेक्षा अधिक प्राचीन है। धनपाल के समय में अपभ्रंश बोली जाती रही होगी, जबकि हेमचन्द्र के समय में वह मृतभाषा हो गयी थी। अतः दोनों में बीच २५० वर्ष का अन्तर होना चाहिए ।
(३) डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री की 'भविसयतकहा तथा अपभ्रंश काव्य' पृ० ६४ के अनुसार भ० कहा की उपलब्ध प्रतियों में सबसे प्राचीन संवत् १४८० की प्रति मिलती है, जो डॉ० शास्त्री को आगरा भण्डार से प्राप्त हुई है (वही पृ० १५५) । इसी काव्य की प्रशस्ति में इसको वि० सं० १३९३ में लिखा हुआ कहा गया है । उल्लिखित पंक्ति इस प्रकार हैं
सुसंवच्छरे अक्किरा विक्कमेणं अहिएहि तेणवदिते रहसएणं । वरिस्सेय पूसेण सेयम्मि पक्खे तिही वारिसी सोमिरोहिणिहिरिक्खे ॥
सुहज्जोइमयरंगओवुद्धपत्तो इओ सुन्दरो केत्थु सुहदिणि समत्तो। (४) ऐतिहासिक दृष्टि से इस ग्रन्थ में जो तथ्य प्राप्त होते हैं, उनसे यह काल उचित जान पड़ता है। धनपाल ने दिल्ली के सिंहासन पर मुहम्मद शाह (१३२५-५१ ई०) का शासन करना लिखा है। सन् १३२८ ई० में आचार्य जिनचन्द्रसूरि का मुहम्मदशाह को धर्म श्रवण कराना एक महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। सम्भवतः इसीलिए मुसलमान उसे काफिर कहते हैं।
इस प्रकार ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर कवि धनपाल का १४वीं शती में भविसयतकहा की रचना करना सुनिश्चित प्रतीत होता है।
धनपाल का सम्प्रदाय-धनपाल जैन धर्म के दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी थे। अतएव यह स्वाभाविक था कि कवि अपनी रचना में अपनी मान्यता के अनुसार वर्णन करता । भविसयतकहा के 'जेण भंजिवि दियम्बरि लाय के अतिरिक्त कतिपय वर्णनों तथा सैद्धान्तिक विवेचन के अनुसार भी उनका दिगम्बरमतानुयायी होना निर्विवाद सिद्ध होता है। कवि ने अष्टमूलगुणों का वर्णन करते हुए कहा है कि मधु, मद्य, मांस और पाँच उदुम्बर फलों को किसी भी जन्म में नहीं खाना चाहिए । जैसा कि कहा है
महु मज्जु मंसु पंचुंबराई खज्जंति ण जम्मंतर सयाइ (१६,८) कवि का यह कथन भावसंग्रह के कर्ता देवसेन के अनुसार है
महुमज्जमंसविरई चाओ पुण उंबराण पंचण्हं । अट्ठेदे मूलगुणा हवंति फुड देसविरयम्मि। -(भावसंग्रह, गाथा ३५६)
१. जै० सा० सं० १ २. संपादक सी० डी० दलाल और पी० डी० गुणे : धनपाल की भविसयतकहा, १९२३, परिचय पृ० ४. ३. वही, पृ० ८६. ४. भ० क० तथा अपभ्रंश कथा काव्य-देवेन्द्रकुमार शास्त्री, पृ० ८७.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org