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कर्मयोगी भी केसरोमलजी सुराना अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ सण
तीन प्रकार (मन-वचन-काय) से गुप्त होने से उच्छ्वासमात्र में खपा देता है।' ज्ञानी की पर-पदार्यों के प्रति मूर्छा (आसक्ति) नहीं होनी चाहिए। जिसके शरीरादि के प्रति परमाणु मात्र भी मूर्छा है, वह भले ही सर्वागम का धारी हो तथापि वह सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। मोक्षार्थी जीव निःसंग और निर्मम होकर सिद्धों की भक्ति करता है, अतः वह निर्वाण को प्राप्त करता है। नानत्व : विमोक्षमार्ग
कुन्दकुन्द के अनुसार जिस मत में परिग्रह का अल्प अथवा बहुत ग्रहणपन कहा है, वह मत तथा उसकी श्रद्धा करने वाला पुरुष गर्हित है । जिन शासन में वस्त्रधारी मुक्ति को प्राप्त नहीं करता, चाहे वह तीर्थकर ही क्यों न हो। नग्नपना मोक्ष का मार्ग है, शेष उन्मार्ग हैं। मुनि यथाजात रूप है, वह अपने हाथ में तिल के तुषमात्र भी कुछ ग्रहण नहीं करता है, यदि थोड़ा-बहुत ग्रहण करता है तो निगोद में जाता है। साधु के बाल के अग्रभाग की कोटिमात्र भी परिग्रह का ग्रहण नहीं होता है, वह अन्य का दिया हुआ भोजन भी एक स्थान पर खड़े होकर पाणिपात्र में ग्रहण करता है। वस्त्ररहित अचेलक अवस्था और एक स्थान पर पाणिपात्र में भोजन के अतिरिक्त जितने मार्ग हैं, वे अमार्ग हैं। जो अण्डज, कापसिज, वल्कल, चर्मज तथा रोमज-इन पाँच प्रकार के वस्त्रों में किसी वस्त्र को ग्रहण करते हैं, परिग्रह के ग्रहण करने वाले हैं, याचनाशील हैं तथा पापकर्म में रत हैं, वे मोक्षमार्ग से धुत हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द के समय में मुनिमार्ग में शिथिलाचार आ गया था। यही कारण है कि नग्नत्व का प्रबल समर्थन करते हुए भी जो केवल नग्नत्व का बाह्य प्रदर्शन करते हैं ऐसे श्रमणों की आचार्य कुन्दकुन्द ने तीव्र भर्त्सना की है
१. कुछ मुनि ऐसे थे, जिन्होंने निर्ग्रन्थ होकर मूलगुण धारण तो कर लिये थे, किन्तु बाद में मूलगुणों का छेदन कर केवल बाह्य क्रियाकर्म में रत थे, कुन्दकुन्द ने उन्हें जिनलिंग का विराधक कहा है ।।
२. कुछ मुनि रागी-परद्रव्य के प्रति आभ्यन्तरिक प्रीतिवान् थे, जिन-भावनारहित ऐसे मुनियों को भावपाहुड में द्रव्यनिर्ग्रन्थ कहा गया है। ऐसे साधु समाधि (धर्म तथा शुक्लध्यान) और बोधि (रत्नत्रय) को नहीं पा सकते हैं।
१. जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भव सयसहस्सकोडीहि ।
तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥-प्र०सा० २३८. परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहा दिएसु जस्स पुणो।
विज्जदि जदि सो सिद्धि ण लहदि सव्वागमधरो वि ॥-वही २३६ तथा पंचास्तिकाय-१६७. ३. पंचास्तिकाय--१६६.
ण वि सिज्झउ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो। णग्गो विमोक्खमग्गो सेस उम्मग्गया सव्वे ॥—सूत्रपाहुड-२३. सूत्रपाहुड-१८.
वही, १७. ७. वही, १०.
जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाहीय जायणासीला। आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ॥-भावपाहुड-७६. मूलगुणं छित्त ण य बाहिरकम्मं करेइ जो साहू।
सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिलिंगविरागो णियदं ॥-मोक्षपाहुर-६८. १०. भावपाहुड-७२.
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