________________
Lo
.0
૪૪
कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड
आगमिक श्रावक परम्परा के रत्न साध्वी श्री कंचनकुमारी (लालू)
जैन आगमों में धावक जीवन की सम्पूर्ण जीवन झाँकी का मार्मिक वर्णन उपलब्ध होता है । उपासकदशांग में श्रावकों के त्यागमय जीवन, संयममयी साधना, ज्ञानाराधना, धर्मजागरण, पापभीरुता, निर्भयता, संकल्पबद्धता, निविप्तता, सहिष्णुता, दृढनिष्ठता और शालीनता का विशिष्ट उल्लेख प्राप्त है ।
आगमकालीन श्रावक बहुत बड़े परिवार के साथ रहकर भी निर्ममत्व रहते थे और धन, धान्य, जायदाद आदि से परिसम्पन्न होकर भी मर्यादाओं का अतिक्रमण नहीं करते थे । यह विदेह साधना का प्रतीक और भेद-विज्ञान का द्योतक है । वस्तुतः उनका अन्तर्मानस जागृत था । वे समय-समय पर घर का उत्तरदायित्व अपने पुत्रों को सौंपकर श्रावक - प्रतिमा स्वीकार कर धर्म- जागरण करते थे । जीवन के तीसरे भाग में गृहस्थाश्रम से सर्वथा मुक्त होकर संलेखना व अनशन से आत्मा को भावित करते थे।
श्रावकों गृहस्थ
श्रावक केसरीमलजी सुराणा ने प्राचीन के जीवन इतिहास को पुनजीवित कर दिया जीवन में विविध तपस्याएँ तपकर इन्द्रियों पर विजय पाना कठिन ही नहीं, कठिनतम है अमीरी जीवन को सात्त्विकता में परिवर्तन कर परिवार के प्रति, धन के प्रति, अपने शरीर के प्रति निस्पृह हो गये । श्रावक प्रतिमा की साधना में शारीरिक कष्ट व देवकृत उपसर्ग उन्हें विचलित करने अनेक अनुकूल प्रतिकूल चित्र
Jain Education International
सामने आते रहे, पर उनकी मन:स्थिति सम रही तप और संयम में निमग्न रहे।
"मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्" मन, वचन और कर्म में सामंजस्य होना साधु पुरुष का सूचक है। जीवन-साधक श्रावक केसरीमलजी ने इस सूक्त को अपने जीवन में यथाशक्य ढालने का प्रयत्न किया है। मन, वचन और क्रिया से पवित्र एवं निर्मल हैं। बाह्य पवित्रता के साथ-साथ आभ्यन्तर पवित्रता से अभिपूरित हैं। शारीरिक और मानसिक तनाव से मुक्त हैं। सादा
भगवान महावीर ने ठाणं सूत्र में मुक्त और अमुक्तता को चार भागों में विभक्त किया है
मुत्त नाममेगे मुत्ते, मुत्ते नाममेगे अमुत्त । अमु नाममेगे मुख, अमुल नाममे अमुतं । प्रथम श्रेणी के व्यक्ति द्रव्य और भावों से मुक्त होते
है और अध्यात्म की
।
गहराई तक पहुंचे हुए होते हैं। वे उद्विग्न और निसंग होते हैं। दूसरी कोटि के व्यक्ति अनासक्त कम और लिप्त अधिक होते हैं। तीसरी श्रेणी की संख्या उनकी है जो संसार में रहते हुए अनुबन्ध से सर्वथा मुक्त तो नहीं होते किन्तु अनासक्त एवं विरक्त जीवन जीते हैं। चौथी श्रेणी के व्यक्ति के अन्तरंग और बहिरंग दोनों पक्ष आसक्त होते हैं ।
श्रावक केसरीमलजी सुराणा की गणना तीसरी श्रेणी में होती है । इनकी हृदय-तन्त्री से राग में विराग और भोग में त्याग का स्वर मुखरित होता है । अनित्य, अशरण भावनाओं से आत्मा भावित है। मंत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य भावनाओं का पर्याप्त विकास है ।
समाज अभ्युदय के लिए स्कूल छात्रावास, कालेज आदि का निर्माण करके भी आचार्य भिक्षु के शब्दों में,
अन्तरर्गत न्यारा रहे, ज्यू धाय रमावे बाल । आप समदृष्टि जीव संसार में रहते हुए भी उस नलिनीदल की भाँति सदा उपरत रहते हैं ।
00
सेवाभावी श्रावक
साध्वी श्री सिरेकुमारी ( सरदारशहर)
जीवन उच्च विचार है। सचमुच ही उनका साधु वेष साधुत्व का सूचक है।
तेरापंथ धर्मसंघ का इतिहास एक स्वर्णिम पृष्ठभूमि है। संघ का वर्चस्व बढ़ाने में और नये-नये उन्मेष प्रदान करने में श्रावक समाज का योगदान समय-समय पर अतिशय सराहनीय रहा है। श्रद्धासिक्त श्रावकों में राणावास के परम उपासक केसरीमलजी सुराणा श्रृंखला की एक कड़ी हैं।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.