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राजस्थानी दिगम्बर जैन गद्यकार
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वे विनम्र पर दृढ़, निश्चयी विद्वान् एवं सरल स्वभावी थे । वे प्रामाणिक महापुरुष थे । तत्कालीन आध्यात्मिक समाज में तत्त्वज्ञान सम्बन्धी प्रकरणों में उनके कथन प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत किये जाते थे। वे लोकप्रिय आध्यात्मिक प्रवक्ता थे। धामिक उत्सवों में जनता की अधिक से अधिक उपस्थिति के लिये उनके नाम का प्रयोग आकर्षण के रूप में किया जाता था । गृहस्थ होने पर भी उनकी वृत्ति साधुता की प्रतीक थी।
पण्डितजी के पिता का नाम जोगीदासजी एवं माता का नाम रम्भादेवी था। वे जाति से खण्डेलवाल थे और गोत्र था गोदीका, जिसे भौंसा व बडजात्या भी कहते हैं। उनके वंशज ढोलाका भी कहलाते थे। वे विवाहित थे पर उनकी पत्नी व सुसराल पक्ष वालों का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। उनके दो पुत्र थे-हरिचन्द और गुमानीराम । गुमानीराम भी उनके समान उच्चकोटि के विद्वान् और प्रभावक, आध्यात्मिकता के प्रवक्ता थे। उनके पास बड़े-बड़े विद्वान् भी तत्त्व का रहस्य समझने आते थे । पण्डित देवीदास गोधा ने “सिद्धान्तसार टीका प्रशस्ति" में इसका स्पष्ट उल्लेख किया है। पण्डित टोडरमलजी की मृत्यु के उपरान्त वे पण्डित टोडरमल द्वारा संचालत धार्मिक क्रान्ति के सूत्रधार रहे । उनके नाम से एक पंथ भी चला जो “गुमान-पंथ” के नाम से जाना जाता है।
पण्डित टोडरमलजी की सामान्य शिक्षा जयपुर की एक आध्यात्मिक (तेरापंथ) सैली में हुई, जिसका बाद में उन्होंने सफल संचालन भी किया । उनके पूर्व बाबा बंशीधरजी उक्त सैली के संचालक थे। पण्डित टोडरमलजी गढ़तत्त्वों के तो स्वयंबद्ध ज्ञाता थे । 'लब्धिसार" व "क्षपणासार" की संदृष्टियाँ आरम्भ करते हुए वे लिखते हैं"शास्त्र विष लिख्या नाहीं और बतावने वाला मिल्या नाहीं।"
__संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी के अतिरिक्त उन्हें कन्नड़ भाषा का भी ज्ञान था। मूल ग्रन्थों को वे कन्नड़ लिपि में पढ़-लिख सकते थे । कन्नड़ भाषा और लिपि का ज्ञान एवं अभ्यास भी उन्होंने स्वयं किया। वे कन्नड़ भाषा के ग्रन्थों पर व्याख्यान करते थे एवं वे कन्नड़ लिपि भी लिख भी लेते थे। ब्र० रायमल ने लिखा है :
"दक्षिण देश सू पांच सात और ग्रन्थ ताड़पत्रां विषै कर्णाटी लिपि में लिख्या इहां पधारे हैं, ताकूँ मल जी बाचे हैं, वाका यथार्थ व्याख्यान कर हैं वा कर्णाटी लिपि में लिखि ले है।'
यद्यपि उनका अधिकांश जीवन जयपुर में ही बीता तथापि उन्हें अपनी आजीविका के लिए कुछ समय सिंघाणा रहना पड़ा। वहाँ वे दिल्ली के एक साहू कार के यहाँ कार्य करते थे।
परम्परागत मान्यतानुसार उनकी आयु कुल २७ वर्ष कही जाती रही, परन्तु उनकी साहित्यिक साधना, ज्ञान व प्राप्त उल्लेखों को देखते हुए मेरा यह निश्चित मत है कि वे ४७ वर्ष तक अवश्य जीवित रहे। इस सम्बन्ध में साधर्मी ब्र. रायमल द्वारा लिखित 'चर्चा-संग्रह' ग्रन्थ की अलीगंज (एटा, उ० प्र०) में प्राप्त हस्तलिखित प्रति के पृ० १७० का निम्नलिखित उल्लेख विशेष द्रष्टव्य है :
"बहरि बारा हजार त्रिलोकसारजी की टीका वा बारा हजार मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंथ अनेक शास्त्रा के अनुस्वारि अर आत्मानुसासनजी की टीका वा हजार तीन यां तीना ग्रंथा की टीका भी टोडरमलजी सैतालीस बरस की आयु पूर्ण करि परलोक विर्ष गमन की"।
पण्डित बखतराम शाह के अनुसार कुछ मदान्ध लोगों द्वारा लगाये गए शिवपिण्डी को उखाड़ने के आरोप के सन्दर्भ में राजा द्वारा सभी श्रावकों को कैद कर लिया गया था। और तेरापंथियों के गुरु, महान धर्मात्मा, महापुरुष पंडित टोडरमलजी को मृत्युदण्ड दिया गया था। दुष्टों के भड़काने में आकर राजा ने उन्हें मात्र प्राणदण्ड ही नहीं दिया बल्कि गंदगी में गड़वा दिया था । यह भी कहा जाता है कि उन्हें हाथी के पैर के नीचे कुचलवा कर मारा था।
१. इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका २. बुद्धि विलास : बखतराम शाह, छन्द १३०३, १३०४. ३. (क) वीरवाणी : टोडरमल प० २८५, २८६. (ख) हिन्दी साहित्य, द्वितीय खण्ड, पृ० ५००
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