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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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पण्डित टोडरमल जी आध्यात्मिक साधक थे। उन्होंने जैन दर्शन और सिद्धान्तों का गहन अध्ययन ही नहीं किया अपितु उसे तत्कालीन जनभाषा में लिखा है। इसमें उनका मुख्य उद्देश्य अपने दार्शनिक चिन्तन को जनसाधारण तक पहुंचाना था। पण्डितजी ने प्राचीन जैन ग्रन्थों की विस्तृत, गहन परन्तु सुबोध भाषा टीकाएं लिखीं। इन भाषा टीकाओं में कई बार विषयों पर बहुत ही मौलिक विचार मिलते हैं जो उनके स्वतन्त्र चिन्तन के परिणाम थे। बाद में इन्ही विचारों के आधार पर उन्होंने कतिपय मौलिक ग्रन्थों की रचना भी की। उनमें से सात तो टीकाग्रन्थ हैं और पाँच मौलिक रचनाएं। उनकी रचनाओं को दो भागों में बाँटा जा सकता है-१. मौलिक रचनाएँ २. व्याख्यात्मक टीकाएं।
मौलिक रचनाएँ गद्य और पद्य दोनों रूपो में है । गद्य रचनाएं चार शैलियों में मिलती हैं१. वर्णनात्मक शैली
२. पत्रात्मक शैली ३. यंत्र रचनात्मक (चार्ट शैली)
४. विवेचनात्मक शैली वर्णनात्मक शैली में समोसरण आदि का सरल भाषा में सीधा वर्णन है । पण्डितजी के पास जिज्ञासु लोग दूरदूर से अपनी शंकाएँ भेजते थे, उनके सामाधान में वह जो कुछ लिखते थे, वह लेखन पत्रात्मक शैली के अन्तर्गत आता है। इसमें तर्क और अनुभूति का सुन्दर समन्वय है । इन पत्रों में एक पत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है । सोलह पृष्ठीय यह पत्र 'रहस्यपूर्ण चिट्ठी' के नाम से प्रसिद्ध है । यन्त्र रचनात्मक शैली में चार्टी द्वारा विषय को स्पष्ट किया जाता है। 'अर्थसंदृष्टि अधिकार' इसी प्रकार की रचना है। विवेचनात्मक शैली में सैद्धान्तिक विषयों को प्रश्नोत्तर पद्धति में विस्तृत विवेचन करके युक्ति व उदाहरणों से स्पष्ट किया गया है। "मोक्षमार्ग प्रकाशक" इसी श्रेणी में आता है।
पद्यात्मक रचनाएँ दो रूपों में उपलब्ध हैं१. भक्तिपरक
२. प्रशस्तिपरक भक्तिपरक रचनाओं में ‘गोम्मटसार पूजा' एवं ग्रन्थों के आदि, मध्य और अन्त में मंगलाचरण के रूप में प्राप्त फुटकर पद्यात्मक रचनाएँ हैं । ग्रन्थों के अन्त में लिखी गई परिचयात्मक प्रशस्तियाँ प्रशस्तिपरक श्रेणी में आती हैं।
पण्डित टोडरमलजी की व्याख्यात्मक टीकाएँ दो रूपों में पाई जाती हैं-१. संस्कृत ग्रन्थों की टीकायें, २. प्राकृत ग्रन्थों की टीकायें।
संस्कृत ग्रन्थों की टीकायें 'आत्मानुशासन भाषा टीका' और 'पुरुषार्थसिद्धि युपाय भाषा टीका' है। प्राकृत ग्रन्थों में गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार-क्षपणासार और त्रिलोकसार हैं, जिनकी भाषा टीकाएँ उन्होंने लिखी हैं।।
गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार और क्षपणासार की भाषा टीकायें पण्डित टोडरमल जी ने अलग-अलग बनाई थी परन्तु चारों टीकाओं को परस्पर एक दूसरे से सम्बन्धित एवं परस्पर एक का अध्ययन दूसरे के अध्ययन में सहायक जानकर उन्होंने उक्त चारों टीकाओं को मिलाकर एक कर दिया तथा उसका नाम 'सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका' रख दिया।'
१. (क) बाबू ज्ञानचंद जी जैन, लाहौर, वि० सं० १८५४
(ख) जैन ग्रंथरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, सन् १९११ ईसवी (ग) पन्नालाल जी चौथे, वाराणसी, बी०नि० सं० २४५१ (घ) अनन्तकीति ग्रंथमाला, बम्बई, वी० नि० सं० २४६३ (ङ) सस्ती ग्रंथमाला, दिल्ली, १९६५ ईसवी
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