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जैन संस्कृति को विशेषताएं
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मंगल हो । जैसे केवल प्रवृत्ति मार्ग कभी कभार प्रवृत्त को आंधी में उड़ा सकता है, वासना के प्रवाह में डुबो सकता है, वैसे ही केवल निवृत्ति जो प्रवृत्तिशून्य है, हवा का महल मात्र बनकर रह सकती है। आज संचार माध्यमों
और वैज्ञानिक साधनों से विश्व सिमट कर नये विश्वसमाज का गर्भ धारण कर रहा है--प्रसव पीड़ा भोग रहा है। संस्कृति सामान्य की तरह जैन संस्कृति को भी इस भावी समाज के निर्माण के लिए अपेक्षित प्रवर्तक गुणों को अपनाना पड़ेगा। सच पूछिए तो प्रवृत्ति और निवृत्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। गीताकार ने निवृत्तिमूलक प्रवृत्ति को अपनाते हुए यहाँ तक कह दिया कि जहाँ जीना-मरना, उठना-बैठना, सांस लेना-छोड़ना भी प्रवृत्ति है और प्रवृत्तिशून्य होकर रहना कैसे सम्भव है, फिर भी सम्भव है, मनसा अनासक्त भाव से प्रवृत्त होने से ही । ऋषभदेव से लेकर आज तक जो जैन संस्कृति जीती चली आई है वह एक मात्र निवृत्ति के बल पर ही नहीं, प्रत्युत अपनी कल्याणकारी प्रवृत्ति के बल पर । यदि प्रर्वतकधर्मी ब्राह्मण संस्कृति निवृत्तिपरक संस्कृति के सुन्दर गुणों को अपनाकर लोक-कल्याणकारी हो सकी है तो निवृत्तिधर्मी संस्कृति को भी चाहिए कि वह प्रवर्तकधर्मी लोक-मांगलिक मूल्यों को अपनावे और आत्मगत मल-शोधन के साथ-साथ निर्मल चित्त से लोकमंगल का भी विधान करे। जैन संस्कृति अपने आचारगत अहिंसा और विचारगत अनेकान्त को लेकर भी उससे अविरोधी मूल्यों का ग्रहण कर सकती है। यदि वह "अहिंसा" का निषेधात्मक रूप लेती है तो विश्वप्रेम जैसा विधायक रूप भी ग्रहण कर सकती है । दोष निषेध्य हैं, पर गुण नहीं । दोषों से निवृत्त अंतस् ही गुणों का आगार हो एकता है । सत्य केवल से असत्य की निवृत्ति हो सकती है। परिग्रह और चौर्य से बचना हो, तो त्याग और संतोष में प्रवृत्त होना होगा । संस्कृति आसक्ति के त्याग का संकेत देती है—प्रवृत्ति मान के त्याग का नहीं । समाज के धारण, पोषण और विकास के अनुकूल प्रवृत्तियाँ विधेय हैं। आज आवश्यक है कि त्यागी वर्ग का भी ध्यान इधर जाना चाहिए और गृहस्थ आश्रम को समाज का सरक्षण होना चाहिए । आज के जीवन में जो विघटनकारी वृत्तियाँ घर करती जा रही हैं; जैनसंस्कृति के उन्नायकों का यह कर्तव्य है कि वे उनको निर्मूल कर लोकगत सात्विक वृत्तियों का उन्मीलन करें। यदि जैन संस्कृति संस्कृति के इस सामान्य लक्ष्य का अपवाद बनती है तो वह सिमटकर व्यक्तिगत ही रह जायगी। महावीर के साथ ऋषभनाथ तथा नेमिनाथ के आदर्शों को भी हमें जीना है।
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