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तेरापंथ का राजस्थानी गद्य साहित्य
बाँट लेणा पिण नितरी ति पूछो नहीं। कनै वेसण देणी नहीं, कभी रहिणा देणी नहीं चरचा
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बात करणी नहीं । बड़ा गुरुवादिकरा कह्यां थी कारण री बात न्यारी ।'
दो-दो, चार-चार साधु साथ रहते हैं और पाँच-पाँच, सात-सात साध्वियां साथ रहती हैं। उनमें से कोई साधु-साध्वी दोष का सेवन कर ले। तब दूसरे साधु-साध्वियों का क्या कर्त्तव्य होता है, इसका सुन्दर चित्रण भिक्षु ने सं० १८४१ के लिखित में इस प्रकार किया है
साथ-साथ मांहो मांहि भेला रहे, तिहां किम ही साथ में दोष लागे धभी ने सताव से कहो, अवसर देखने, पिण दोष मेला करणा नहीं धणी ने कहा थकां प्रति ले तो पिन गुरां ने कहि देणौ । जो प्रति ले तो प्राछित रा धमी ने आरं कराय ने बोल लिखने उन सूप देणो । इण बोल रौ प्राछित गुरु थांने देवै तो लीजो। जो इण रौ प्राछित कहिजथे गाला गोलो कीजो मती जो ये न कह्यो तो महारा कहिया रा भाव है दोष भासै तो संका सहित कहिसूं । निसंक पणे दोष जाणूं छू तं निसंकपणे कहिसूं । नहीं पाधरा चालो ।'
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न हुवै तो ही
संका सहित तो अजै ही
'हैं उणाने छोड्या जद पाँच वर्ष तांइ तो पूरो आहार न मिल्यो । घी चोपर तो कठै। कपडो कदाचित् वासती मिलती ते सवा रुपया री। तो भारमलजी स्वामी कहिता पछवडी आपर करौ । जद स्वामीजी कहिता एक पोलपटी चार करो, एक म्हार करो। आहार पाणी जाचने उजाड़ में सर्व साध परहा जावता । रूँखरा री छाया तो आहार पाणी मेलने आतापना लेता, आथण रा पाछा गाम में आवता । इण रीतै कष्ट भोगता । कर्म काटता । म्है या न जाणता म्हारो मारग जमती नै म्हां मैं यूं दीक्षा लेसी ने यूं श्रावक श्राविका हुसी । जाण्यो आत्मा रा कारज सारसां मर पूरा देसां इम जाण नै तपस्या करता । पछे कोई-कोई के सरधा बेसवा लागी । समझवा लागा । जद विरपालजी फतचन्दजी माहिला साधां को लोग तो समझता दी है। ये तपस्या क्यूं करौ । तपस्या करण में तो म्हें छांईज । थे तो बुद्धिमान् छो सो धर्म रो उद्योत करो। लोकां ने समझावो । जद पछै विशेष रूप करवा लागा। आचार अणुकंपा री जोडां करी । व्रत अव्रत री जोडां करी । घणा जीवां ने समझाया। पछै वखान जोड्यो ।
- भिक्षु दृष्टान्त २७६
इस गद्य में स्वामीजी के अन्तःकरण की भावना, पवित्रता, निरभिमानता और साधना की उत्कटता स्पष्ट
झलकती है।
थोकडा
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आपने कई 'धोकडें लिखे। उनमें 'तेरह द्वार' का थोकड़ा बहुत प्रसिद्ध है। इसमें नौ तत्वों जीव अजीव पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष को तेरह विभिन्न द्वारों (अपेक्षाओं) से समझाया गया है। बे तेरह द्वार हैं-मूल, दृष्टान्त, कुण, आत्मा, जीव, अरूपी, निरवद्य, भाव, द्रव्य, गुण-पर्याय, द्रव्यादिक, आज्ञा, विनय, तालाब ।
मैं इनकी स्पष्ट अभिव्यक्ति के लिए प्रथम तथा अन्तिम द्वार का उल्लेख करता हूँ
'जीव ते चेतना लक्षण, अजीव ते अचेतना लक्षण, पुण्य ते शुभ कर्म, पाप ते अशुभ कर्म, कर्म ग्रहै ते आस्रव, कर्म रोके ते संवर, देशथकी कर्म तोड़ी देशयी जीव उज्ज्वल भाव ते निर्जरा, जीव संघाते शुभाशुभ कर्म बन्ध्या ते बन्ध, समस्त कर्मों से मुकावं ते मोक्ष ।' —-द्वार पहला
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' तलाब रूपी जीव जाणवो । अतलाब से तलाब रूपी अजीव जाणवों निकलता पाणी रूप पुण्यपाप जाणवा । नाला रूप आस्रव जाणवो । नाला बंध रूप संवर जाणवो । मोरी करी ने पाणी काढ़े ते निर्जरा जाणवो । महिला पाणी रूप बंधजाणवो । खाली तलाब रूप मोक्ष जाणवो ।' -द्वार तेरहवाँ
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