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________________ ३१० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड किसी को सौंपकर निश्चिन्त भाव से साधना संलग्न बनता है, तो वह पराधीन नहीं होता है । अपने जुम्मे का कार्य किया और निश्चिन्त हुआ। दूसरों की चिन्ता तो नहीं, उसे अपनी चिन्ता भी नहीं । सारा दायित्व आचार्य पर सौंपकर साधक सचमुच हल्का हो जाता है, अतः मर्यादा में रहना, अनुशासन में रहना, आचार्य समर्पित होना, पराधीन बनना नहीं, अपने आपको निश्चिन्त बनाकर साधना संलग्न होने का मार्ग प्रशस्त करना होता है । तेरापन्थ में केवल मर्यादा का निर्माण ही नहीं हुआ है, उनके पालन के प्रति पूरी सजगता बरती जाती है । जहाँ मर्यादा का भंग हुआ, वहीं अनुशासनात्मक कार्यवाही की गई। एक बार आचार्य भिक्षु ने चंडावल में एक साथ पाँच साध्वियों को मर्यादा से अधिक वस्त्र रखने के कारण संघ से निष्कासित कर दिया था। तेरापन्थ में व्यक्ति का सवाल नहीं, मर्यादा का सवाल है, साधना का सवाल है । उस समय साध्वियों की संख्या बहुत कम थी फिर भी आचार्य भिक्षु ने चिन्ता नहीं की । इसी प्रकार चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जाचार्य ने एक साधु को संघ से इसलिये बहिष्कृत कर दिया कि संघ की मर्यादा के प्रति यह लापरवाह था। उस मुनि ने एक बार बिना आज्ञा लिये सुई वापिस भुला दी थी युवाचार्य श्री मपनामणि के पूछने पर कहा- हुई हो तो भी क्या खास बात की जो आज्ञा लेना पड़े। यों लापरवाही से उत्तर दिया । जयाचार्य प्रतिक्रमण में थे, प्रतिक्रमण के बाद उसे बुलाकर फिर पूछा तो उसी लापरवाही से उसने वहाँ उत्तर दिया । जयाचार्य ने कहा- प्रश्न सुई का नहीं है । प्रश्न है अनुशासन का प्रश्न है व्यवस्था का । उसके प्रति लापरवाही बरतने वाला संघ में कैसे रह सकता है ? उस मुनि ने फिर भी अपनी लापरवाही के प्रति कोई अनुताप नहीं किया । जयाचार्य ने उसे अनुशासनहीनता के कारण संघ से बहिष्कृत कर दिया था । तेरापन्थ की यह नीति रही है । यहाँ रुग्ण को स्थान है, प्रकृति से कठोर व्यक्ति को स्थान है किन्तु अनुशासनहीन को यहाँ स्थान नहीं है । आचार्य भिक्षु से लेकर अब तक यही क्रम अविच्छिन्न रूप से चल रहा है । तेरापन्थ की आचार्य परम्परा ही केवल अनुशासन के प्रति सजग नहीं है, साधु-साध्वियों की परम्परा भी इस ओर जागरूक है । किसी साध्वी को अनुशासनहीन होने ही नहीं देते, सब जानते हैं अनुशासनहीन होने का मतलब है सबकी दृष्टि में गिरना और अन्त में संघ से भी छूटना । तेरापन्थ के धावक-धाविकाएँ भी संघीय अनुशासन के प्रति पूर्णतः जागरूक हैं अनुशासनहीनता के विरुद्ध कठोर से कठोर कदम उठाते भी नहीं सकुचाते। मेवाड़ में देवरिया ग्राम के निवासी श्री जुहारमलजी के जीवन का भी ऐसा ही एक प्रसंग है- श्रावक जुहारमल संघनिष्ठ परम भक्त थे। एक बार वहाँ मुनि नथराजजी आये, जिनका चातुर्मास अन्यत्र फरमाया हुआ था । वे सम्त वहां जाना नहीं चाहते थे, वहीं देवरिया में ही चातुर्मासविताना चाहते थे किन्तु आचार्यश्री द्वारा उनका चातुर्मास घोषित दूसरे स्थान पर था । अतः धावकों में कुछ परस्पर चर्चा होने लगी सन्तों का मन विहार का कम है, बातचीत भी चलाते हैं तो कहते हैं घुटनों में दर्द है ऐसा दर्द लगता नहीं है, शौच-गोचरी के लिये इधर-उधर जाते ही हैं तो बिहार न हो ऐसा नहीं लगता । आखिर लोगों ने बिहार के लिये सन्तों से कहा । सन्तों के दर्द बताने पर लोगों ने स्पष्ट कहा - महाराज ! चातुर्मास आपका वहां फरमाया हुआ है अतः वहीं करना पड़ेगा घुटनों का दर्द इतना नहीं है, पंचमी (शौच के लिये आप बाहर पधारते ही हैं, ऐसे ही धीमे-धीमे बिहार कर लीजिये । गुरु आज्ञा है उसे तो पालना ही होगा । Jain Education International भावकों की स्पष्ट बातें सुनकर सन्तों ने विहार किया, किन्तु पैरों को टेसा रखते हुए बहुत कठिनाई से चलने लगे। सोचा होगा— शायद अब भी धावक देवरिया चातुर्मास के लिये कह दे तो वापिस चले जायें। पहुँचाने के लिए आये हुए लोगों को उनका चलना अस्वाभाविक लगा। तभी भीड़ में से श्रावक जुहारमलजी आगे आये और बोलेमहाराज ! हमारे ग्राम में इस वर्ष चातुर्मास किसी साधु-सतियों का नहीं है प्रार्थना भी काफी की थी, किन्तु पूज्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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