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तेरापंथ और अनुशासन
मुनि श्री सुमेरमल "लाडनूं" (युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी के शिष्य)
तेरापन्थ शब्द अन्य धर्म सम्प्रदायों के लिए अनुशासन का प्रतीक बन गया है। तेरापन्थ नाम दिमाग में आते ही आचार्य केन्द्रित सर्वात्मना समर्पित संस्थान का ढांचा सामने आ जाता है। सचमुच तेरापन्थ का मतलब ही है-अनुशासित धर्मसंघ ।
__ आचार्य भिक्षु की यह महान् देन है। उन्होंने अपने धर्म-संघ में प्रारम्भ से अनुशासन को स्थान दिया था। वे देख चुके थे-अन्य धर्म सम्प्रदायों की अनुशासनहीनता और उसके दुष्परिणाम । उनकी यह दृढ़ मान्यता थीबिना अनुशासन के सामूहिक व्यवस्था ठीक नहीं बैठ सकती और अव्यवस्था में कभी सम्यक्साधना सध नहीं सकती।
मनमानी करने वाला उनकी दृष्टि में साधना नहीं कर सकता। जब तक मन पर नियन्त्रण नहीं होता, तब तक साधना में साधक स्थिर नहीं हो सकता। मनमानी रोकने के लिए ही उन्होंने कुछ अनुशासनात्मक मर्यादाएँ बाँधी । संवत् १८३२ में उन्होंने इस ओर अपनी लेखनी उठाई । प्रथम लेखपत्र में ही उन्होंने कई मर्यादाओं का निर्माण किया उनमें प्रमुख पाँच मर्यादाएँ हैं
१. सर्व साधु-साध्वियाँ एक आचार्य की आज्ञा में रहें । २. विहार-चातुर्मास आचार्य की आज्ञा से करें। ३. अपना शिष्य-शिष्याएँ न बनायें । ४. आचार्य श्री योग्य व्यक्ति को दीक्षित करें, दीक्षित करने पर भी कोई अयोग्य निकले तो उसे गण से
अलग कर दें। ५. आचार्य अपने शिष्य को उत्तराधिकारी चुने, उसे सब साधु-साध्वियां सहर्ष स्वीकार करें।
इन मर्यादाओं ने व्यवस्था की दृष्टि से साधक को सर्वथा निश्चिन्त बना दिया है। कहाँ जाना ? कहाँ रहना? किसके साथ जाना? या किसे ले जाना ? ये सब आचार्य केन्द्रित व्यवस्थाएं हैं। हर साधक को आचार्य के निर्देशानुसार चलना होता है, फिर किसी प्रकार की कठिनाई नहीं ।
मर्यादाओं का औचित्य कहने को यह भी कहा जा सकता है, इन मर्यादाओं में जीवन बँध जाता है ; व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं रहता, हर दृष्टि से वह पराधीन बन जाता है। फिर साधु को मर्यादा की क्या जरूरत ? उसे तो मुक्त-जीवन जीना चाहिए।
साधु साधक है, सिद्ध नहीं है । सिद्धों के मर्यादा नहीं होती, सर्वज्ञों के मर्यादा नहीं होती। जब तक छद्मस्थता है, तब तक जागरूकता अपेक्षित है। जागरूक रहने के लिए मर्यादाएँ प्रहरी को काम करती हैं। वह बहुत जरू
मर्यादा में चलने का मतलब पराधीन बनना नहीं, अपने जीवन की व्यावहारिक व्यवस्था का भार अगर
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