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________________ ३२४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ..-. -.-.-. -. -.-. -.-. -. -. -. -.-. -. -. -. .... ......... .... .. .... .... ...... .. ... अपरिग्रह मानव को सांसारिक-वस्तुओं का अधिक संग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि संग्रह-प्रवृत्ति से अनेक प्रकार की सामाजिक समस्याएँ पैदा होती हैं। इस सिद्धान्त ने सुन्दर समाजवादी चिन्तन को व्यक्त किया है, जो आधुनिक समय में अति-महत्त्वपूर्ण है। (च) मानव और परम सत्ता ईश्वर कोई प्रत्यक्ष सत्ता नहीं है, अतः जैन-दर्शन में ईश्वर जैसी कल्पित सत्ता को अस्वीकार किया है । वे सिद्धस्थ तीर्थंकरों की आराधना पर बल प्रदान करते हैं, उसे ही परम सत्ता या ईश्वर स्वीकार करते हैं । अत: जैनदर्शन में परम सत्ता के स्थान पर तीर्थकरों की पूजा व उपासना पर बल देकर मानवीय गौरव को सहर्ष स्वीकार किया गया है। यह मानववादी अर्थवत्ता का सुन्दर व अद्वितीय प्रमाण है। ८. मानव और उसकी आचार-पद्धति जैन-दर्शन के पूर्व तत्कालीन भारत में अनेक दुष्प्रवृत्तियाँ अमानवता का नग्न-अट्टहास कर रही थीं। ऐसे भीषण-समय में मानव मूल्यों की सुरक्षा करने के लिए अनेक कार्यक्रम प्रस्तुत किये गये थे, जैसे-वैदिक आदर्श व उनके कर्म, पुरोहितों के आडम्बरयुक्त कर्म, हिंसा, अन्याय, जातिवाद, छूआ-छूत, परलोकवाद, यज्ञों में बलि, साम्प्रदायिकता, धार्मिक-ढोंग, असत्य-भाषण, चोरी, संग्रह-वृत्ति, स्त्री व शूद्रों का शोषण, संस्कृत-भाषा का प्रचलन, राष्ट्रीयता का अभाव व मिथ्या अन्धविश्वास आदि अमानवीय-मूल्यों का विरोध । ये सभी कीटाणु मानव-मूल्यों को नष्ट करके समाज की जड़ को खोखला कर रहे थे। जैन आचार्यों ने इनके विरुद्ध कदम उठाया। भगवान् महावीर ने मानव को उपदेश दिया-"किसी भी प्राणी को सताओ मत । जीओ और जीने दो। दया करो।" उन्होंने मानवकल्याण के लिये अनेक उपदेश दिये, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-रत्न-त्रय, सप्त-पदार्थ, पंच-महाव्रत व कैवल्य की प्राप्ति आदि। जैन-दर्शन में अज्ञान से मुक्ति के लिए तीन साधन बतलाये गये हैं, जिन पर चलकर मानव अज्ञान से ज्ञान की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होकर आनन्द की प्राप्ति कर सकता है। वे निम्न हैं—सम्यक्-दर्शन, सभ्यज्ञान व सम्यक्-चारित्र। (क) सम्यक्-दर्शन यथार्थ-ज्ञान के प्रति श्रद्धा सम्यक्-दर्शन कहलाती है। इसका तात्पर्य वास्तविक ज्ञान से है, न कि अन्धविश्वास से । जैन-दर्शन युक्ति-प्रधान दर्शन का समर्थक है, वह युक्ति-रहित किसी भी दार्शनिक मान्यता को स्वीकार नहीं करता है । यहाँ आचार्य हरिभद्र का कथन उद्धृत करना उचित ही होगा-"न मेरा महावीर के प्रति कोई पक्षपात है और न कपिल या अन्य दार्शनिकों के प्रति द्वेष ही है । मैं युक्ति-संगत वचन को ही स्वीकार करता हूँ, वह चाहे जिस किसी का हो ।” (ख) सम्यक्-ज्ञान जीव व अजीव के मूल तत्त्वों का विशेष ज्ञान होने से ही सम्यक ज्ञान प्राप्त होता है। घाती कर्मों के पूर्ण विनाश के बाद ही केवल-ज्ञान की प्राप्ति संभव है। (ग) सम्यक्-चारित्र सम्यक्-चारित्र का तात्पर्य है, जीव हितकारी कर्मों में ही प्रवृत्त हो। जिससे वह कर्म-जाल से मुक्त हो सकता है, क्योंकि बन्धन व दु:ख का कारण है-कर्म । सम्यक-चारित्र ही इसके विनाश का आधार है। १. दिनांक २६ मार्च, ८० को उदयपुर (राज.) से प्रस्तुत रेडियो वार्ता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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