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प्रवर्तक स्थविर, मणी, गणधर गणायक पदों की सुन्दर व्यवस्था की गई, वह वास्तव में उस युग में संघ का सर्वतोमुखी विकास, संरक्षण-संवर्धन का विशिष्ट उदाहरण वा ।
यहाँ पर उपाध्याय पद के सन्दर्भ में विचार चिन्तन प्रस्तुत करना हमारा अभिप्रेत विषय है । इस पद के सम्बन्ध में जैनागमों में और उसके उत्तरवर्ती वाड्मय में अत्यधिक मूल्यवान् सदर्भ प्राप्त होते हैं, अतः यह स्पष्ट है कि उपाध्याय पद भी जैन- परम्परा में एक गौरवपूर्ण पद रहा है।
जैनदर्शन ज्ञान और क्रिया के समन्वित अनुसरण पर आधारित रहा है। ज्ञान और क्रिया- दो दोनों ही पक्ष जैन श्रमण - जीवन के अनिवार्य पक्ष हैं । जैन साधक ज्ञान की आराधना में अपने आपको बड़ी ही तन्मयता से जोड़ । ज्ञानपूर्वक समाचरित क्रिया में आत्मिक निर्मलता की अनुपम सुषमा प्रस्फुटित होती है जिस प्रकार ज्ञान-परिणत क्रिया की गरिमा है, ठीक उसी प्रकार क्रियान्वित ज्ञान की वास्तविक सार्थकता भी सिद्ध होती है। जिस साधक के जीवन में ज्ञान और क्रिया का पावन संगम नहीं हुआ है, उसका जीवन भी ज्योतिर्मय नहीं बन सकता। तात्पर्य की भाषा में यह कहना सर्वथा संगत होगा कि जो श्रमण ज्ञान एवं क्रिया इन दोनों पक्षों में सामंजस्य स्थापित कर साधनापथ पर अग्रसर होता रहेगा, वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में अधिक सफल बनेगा ।
जैन श्रमण-संघ में आचार्य के बाद दूसरा पद उपाध्याय का है, इस पद का सम्बन्ध अध्ययन से रहा है । प्रस्तुत पद श्रुतप्रधान अथवा सूत्रप्रधान है। यह सच है कि आध्यात्मिक साधना तो साधक - जीवन का अविच्छिन्न अंग है। उपाध्याय का प्रमुख कार्य यही है कि धमणों को सूष-वाचना देना । उपाध्याय की कतिपय विशेषताएँ वे हैंआगम - साहित्य सम्बन्धी व्यापक और गहन अध्ययन, प्रकृष्ट प्रज्ञा प्रगल्भ पाण्डित्य ।
कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
उपाध्याय का सीधा सा अर्थ है - शास्त्र वाचना का कार्य करना । प्रस्तुत शब्द पर अनेक मनीषी आचार्यों ने अपनी-अपनी दृष्टि से विचार- चिन्तन किया है।
जिनके पास जाकर साधुजन अध्ययन करते हैं, उन्हें उपाध्याय कहा गया है । 3
ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना में स्वयं निपुण होकर अन्य व्यक्तियों को जिनागमों का अध्ययन कराने वाले उपाध्याय कहलाते हैं । *
जिसके सान्निध्य में जाकर शास्त्र का पठन एवं स्वाध्याय किया जाता है, वह उपाध्याय कहलाता है । इसीलिए आचार्य श्री शीलांक ने उपाध्याय को अध्यापक कहा है।
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४.
(क) स्थानांग सूत्र, ४, ३, ३२३ वृत्ति ।
(ख) बृहत्कल्पसूत्र, ४ उद्देशक ।
(क) बारसंगो जिगरखाओ सज्जओ कहिलो बुह ।
त उवइस्संति जम्हा, उवज्झया तेण वुच्चति ॥
भगवती सूत्र १. १. १, मंगलाचरण में आ०नि०गाचा, ९६४.
- स्थानांगसूत्र, ३.४ ३२३ वृत्ति ।
(ख) उपाध्याय: सूत्रदाता |
उपेत्य अधीयते यस्मात् साधवः सूत्रामित्युपाध्यायः ।
- आवश्यक नियुक्ति ३, पृष्ठ ४४९, आचार्य हरिभद्र। रत्नत्रयेषूद्यता जिनागमार्थं सम्यगुपदिशंति ये ते उपाध्यायाः । - भगवती आराधना विजयोदया टीका–४६ । उपाध्याय अध्यापकः । आचारांग शीलांकवृत्ति सूत्र २७९ ।
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