________________
२१०
Jain Education International
कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड'
है । यह अच्छेद्य, अदाह्य एवं अशोध्य होने के कारण नित्य, सर्वगत, स्थिर, अचल एवं सनातन है ।" "इस दृष्टि से किसी को आत्मा का कर्त्ता स्वीकार नहीं कर सकते। यदि आत्मा अविनाशी है तो उसके निर्माण या उत्पत्ति की कल्पना नहीं की जा सकती । इसका कारण यह है कि यह सम्भव नहीं कि कोई वस्तु निर्मित हो किन्तु उसका विनाश न हो। इस कारण जीव ही कर्त्ता तथा भोक्ता है। कर्मानुसार अनेक रूप धारण करता रहता है।"
जैन दर्शन की भांति चार्वाक निरीश्वर सांख्य, मीमांसक एवं बौद्ध इत्यादि भी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते। न्याय एवं वैलेषिक दर्शन मूलतः ईश्वरवादी प्रतीत नहीं होते। वैशेषिक सूत्रों में ईश्वर का कहीं उल्लेख नहीं है । न्याय सूत्रों में कथंचित् है । इन दर्शनों में परमाणु को ही सबसे सूक्ष्म और नित्य प्राकृतिक मूलतत्त्व माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति परमाणुवाद सिद्धान्त के आधार पर मानी गयी है। दो परमाणुओं के योग से द्वयणुक, तीन द्वणुकों के योग से व्यणुक, चार त्र्यणुकों से चतुरणुक और चतुरणुकों के योग से अन्य स्थूल पदार्थों की सृष्टि मानी गयी है । जीवात्मा को अणु, चेतन, विभु तथा नित्य आदि कहा गया है । इस प्रकार वैशेषिक दर्शन में परमाणु को मूल तत्त्व मानने के कारण ईश्वर या परमात्मा शक्ति को स्वीकार नहीं किया गया । न्याय ईश्वरवाद अत्यन्त क्षीणप्राय या भाष्यकारों ने ही ईश्वरवाद की स्थापना पर विशेष बल दिया। दो भागों में विभाजित कर दिया गया, जीवात्मा एवं परमात्मा ।
में सूत्रकाल में आत्मा को ही
ज्ञानाधिकरणमात्मा । स द्विविधः जीवात्मा परमात्मा चेति । तत्रेश्वरः सर्वज्ञः परमात्मा एक एव सुख दुःखादि रहितः जीवात्मा प्रति शरीरं भिन्नोविभुर्नित्यश्च ।
इस दृष्टि से आत्मा ही केन्द्र बिन्दु है जिस पर आगे चलकर परमात्मा का भव्य प्रासाद निर्मित किया गया।
।
आत्मा को ही ब्रह्म रूप में स्वीकार करने की विचारधारा वैदिक एवं उपनिषद् युग में भी थी 'प्रज्ञाने ब्रह्म,' 'अहं ब्रह्मास्मि,’ ‘तत्त्वमसि' 'अयमात्मा ब्रह्म' जैसे सूत्र वाक्य इसके प्रमाण हैं । ब्रह्म प्रकृष्ट ज्ञानस्वरूप है । यही लक्षण आत्मा का है । मैं ब्रह्म हूँ, तू ब्रह्म ही है, मेरी आत्मा ही ब्रह्म है, आदि वाक्यों में आत्मा एवं ब्रह्म पर्याय रूप में प्रयुक्त है। पतंजलि ने ईश्वर पर बल न देते हुए आत्मस्वरूप में अवस्थान को ही परम लक्ष्य, योग या कवल्य माना है ।
जैन दर्शन भी पुरुष विशेष (ईश्वर) में विश्वास नहीं करता। प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा बनने की शक्ति का उद्घोष करता है । द्रव्य की दृष्टि से आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है । दोनों का अन्तर अवस्था अर्थात् पर्यायगत है। जीवात्मा शरीर एवं कर्मों की उपाधि से युक्त होकर संसारी हो जाता है। मुक्तजीव त्रिकाल शुद्ध नित्य निरंजन परमात्मा है । जिस प्रकार यह आत्मा राग-द्वेष द्वारा कर्मो का उपार्जन करती है और समय पर उन कर्मों का विपाक फल भोगती है, उसी प्रकार यह आत्मा सर्वकर्मों का नाश कर सिद्ध लोक में सिद्ध पद को प्राप्त करती है । ७
१. गीता २।२०- २४ एवं २।५१ पर शांकर भाष्य ।
२. ( क ) ब्रह्मसूत्र २।३।३३-३६
२. तर्कभाषा, पृ० १०८ ।
४. वही, पृ० १०१
५. वही, पृ० १५२-१५१.
६. तर्क संग्रह, खण्ड एक ।
७.
(ख) श्वेताश्वतरोपनिषद्, ४६ ।
जहा रागेण कडाणं कम्माणं, पावगो फलविवागो ।
जय परिहरुमा सिद्ध सिद्धनुर्वेति ॥ पपातिक सूत्र ३५.
For Private & Personal Use Only
( ग ) ईशोपनिषद् ३ ।
www.jainelibrary.org