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जैन दर्शन और ईश्वर की परिकल्पना
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हुए भी' जगत को स्वप्न एवं मायार चित नगर के समान पूर्णतया मिथ्या एवं असत्य मानते हैं। क्या सृष्टि विधान का कारण परमात्मा ही है ? क्या सृष्टि की आदि में जगत न था, केवल ब्रह्म था तथा इसका अस्तित्व क्या शून्य हो जावेगा? आदि के सम्बन्ध में विचार करते समय प्रश्न उपस्थित होते हैं कि सृष्टि की सत्ता सत्य है या मिथ्या है, नित्य है या अनित्य है ? जड़ है या चेतन है ? यदि परमात्मा से सृष्टि विधान माना जाता है तो परमात्मा की चेतन रूप परिकल्पना के अनुसार पृथ्वी आदि को भी चेतन मानना पड़ेगा अथवा पृथ्वी आदि के अनुरूप परम त्मा को जड़ मानना पड़ेगा । सत्य स्वरूप ब्रह्म से जगत की उत्पत्ति मानने पर ब्रह्म का कार्य असत्य कैसे हो सकता है ? यदि जगत की सत्ता सत्य है तो उसका अभाव कैसा? जगत को स्वप्न एवं मायारचित गन्धर्वनगर के समान पूर्णतया मिथ्या एवं असत्य मानना क्या संगत है?
क्या जगत को माया के विवर्तरूप में स्वीकार कर रज्जु में सर्प अथवा सीप में रजत की भाँति कल्पित माना जा सकता है ? कल्पना गुण है। गुण तथा द्रध्य की पृथकता नहीं हो सकती । स्वप्न बिना देखे या सुने नहीं आता । सत्य पदार्थों के साक्षात् सम्बन्ध से वासनारूप ज्ञान आत्मा में स्थित होता है। स्वप्न में उन्हीं का प्रत्यक्षण होता है। स्वप्न और सुषुप्ति में बाह्य पदार्थों का अज्ञान मात्र होता है, अभाव नहीं। इस कारण जगत को अनित्य भी नहीं माना जा सकता । जब कल्पना का कर्ता नित्य है तो उसकी कल्पना भी नित्य होनी चाहिए अन्यथा वह भी अनित्य हुआ । जैसे सुषुप्ति में बाह्य पदार्थों के ज्ञान के अभाव में भी बाह्य पदार्थ विद्यमान रहते हैं वैसे ही प्रलय में भी जगत के बाह्य रूप के ज्ञान के अभाव में भी द्रव्य वर्तमान रहते हैं। कोयला को जितना चाहे जलावे, वह राख बन जाता है, उसका बाह्य रूप नष्ट हो जाता है किन्तु कोयला में जो द्रव्य तत्त्व है वह सर्वथा नष्ट कभी नहीं हो सकता।
विश्व जिन जीवों (चेतनाओं) एवं पुद्गल (पदार्थों) का समुच्चय है वे तत्त्वतः अविनाशी एवं आन्तरिक है। इस कारण जगत को मिथ्या स्वप्नवत् एवं शून्य नहीं माना जा सकता । किसी भी नवीन पदार्थ की उत्पत्ति नहीं होती। किसी भी प्रयोग से नये जीव अथवा नए परमाणु की उत्पत्ति नहीं हो सकती। पदार्थ में अपनी अवस्थाओं का रूपान्तर होता है। इस प्रकार इस ब्रह्माण्ड के प्रत्येक मूल तत्त्व की अपनी मूल प्रकृति है। कार्य-कारण के नियम के आधार पर प्रत्येक मूल तत्त्व अपने गुणानुसार बाह्य स्थितियों में प्रतित्रियाएँ करता है। इस कारण जगत मिथ्या नहीं है। संसार के पदार्थ अविनाशी हैं इस कारण विश्व को स्वप्नवत् नहीं माना जा सकता। ब्रह्माण्ड के उपादान या तत्त्व अनन्त, आन्तरिक एवं अविनाशी होने के कारण अनिर्मित है। शून्य से किसी वस्तु का निर्माण नहीं होता। शून्य से जगत मानने पर जगत का अस्तित्व स्थापित नहीं किया जा सकता। जो वस्तु है उसका अभाव कभी नहीं है। इस प्रकार जगत सत्य है तथा उसका शून्य से सद्भाव सम्भव नहीं है। इस प्रकार जगत को अनादि-अनन्त मानना तर्कसंगत है। विज्ञान का भी यह सिद्धान्त है कि पदार्थ अविनाशी है। वह ऐसे तत्त्वों का समाहार है जिनका एक निश्चित सीमा के आगे विश्लेषण नहीं किया जा सकता । अब प्रश्न शेष रह जाता है कि क्या परमात्मा या ईश्वर को समस्त जीवों के अंशी रूप से स्वीकार कर जीवों को परमात्मा के अंश रूप में स्वीकार किया जा सकता है ?
आत्मावादी दार्शनिक आत्मा को अविनाशी मानते हैं। श्रीमद्भगवत्गीता में भी इसी प्रकार की विचारणा का प्रतिपादन हुआ है । यह जीवात्मा न कभी उत्पन्न होता है, न कभी मरता है, न कभी उत्पन्न होकर अभाव को प्राप्त होता है, अपितु यह अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है, पुरातन है, और शरीर का नाश होने पर भी नष्ट नहीं होता। इस जीवात्मा को अविनाशी नित्य, अज और अव्यय समझना चाहिए। जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों का त्याग करके नवीन वस्त्रों को धारण कर लेता है, वैसे ही यह जीवात्मा पुराने शरीरों को छोड़कर नवीन शरीरों को ग्रहण करता रहता है । इसे न तो शस्त्र काट सकते हैं. न अग्नि जला सकती है, न जल भिगो सकता है और न वायु सुखा सकती १. तैत्तिरीयोपनिषद३।१, ३१६ और ब्रह्मसूत्र १।११२ पर शांकर भाष्य । २. (क) ब्रह्मसूत्र २।१।१४, २।२।२६ (ख) विवेक चूड़ामणि १४०, १४२ (ग) वेदांतसार, पृ० ८ ।
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