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________________ तेरापंथी जैन व्यकराण साहित्य पाणिनीय व्याकरण के आधार पर 'उत्थानम्' इस शब्द की सिद्धि में छ: सूत्र लगाने पड़ते हैं, किन्तु भिक्षुशब्दानुशासन का एक ही सूत्र उन सबका काम कर देता है। भिक्षुशब्दानुशासन प्रकाशित नहीं है, इसलिए इसका अध्ययन अध्यापन तेरापंथ संघ के साधु-साध्वियों तक ही सीमित है। इस व्याकरण ग्रन्थ के अध्ययन से साधु-साध्वियों ने संस्कृत विद्या के क्षेत्र में अच्छा विकास किया है। तेरापंथ संघ के नामकरण की पहले कोई कल्पना नहीं थी, इसी प्रकार इस संघ के व्याकरण का नामकरण भी अकल्पित रूप से हुआ। भिक्षुशब्दानुशासन अष्टाध्यायी के क्रम से बनाया गया है। इसकी सूत्र संख्या जानने के लिए देखिए यन्त्र-- | 0 चरण m अध्याय १ ८६ २६६ ४७२ १०५ १६० Irr ० tur mro ० ५०४ १३४ Kasी जर ० ० Wwxx 60WG १२२ १०५ १२४ १५३ ५१२ ४०४ ४७८ ५३५ ४६५ " १६१ १०८ १४३ ११७ १३४ कुल संख्या ३७४६ कालूकौमुदी भिक्षु शब्दानुशासन का निर्माण होने के बाद संघ के साधु-साध्वियों में संस्कृत भाषा के प्रति विशेष अभिरुचि पैदा हुई। प्रतिभा सम्पन्न और स्थिर विद्याथियों के लिए भिक्षुशब्दानुशासन का अध्ययन सहज हो गया किन्तु साधारण बुद्धिवालों और प्रारम्भिक रूप से पढ़ने वालों के लिए कुछ जटिलता पैदा हो गई। उस जटिलता को निरस्त करने के लिए भिक्षुशब्दानुशासन की संक्षिप्त प्रक्रिया "कोलू कौमुदी' नाम से तैयार की गई। यह पूर्वाद्धं और उत्तरार्द्ध दो भागों में विभक्त है। यह काम भी मुनि श्री चौथमलजी ने किया। संक्षिप्तता और सरलता के साथ कालूकौमुदी की उपयोगिता बढ़ गई । "कोलूकौमुदी' पढ़ने के बाद भिक्षुशब्दानुशासन का अध्ययन भी सुगम हो गया। "कालूकौमुदी" के दोनों भाग प्रकाशित हैं। एक बार बनारस विश्वविद्यालय में संस्कृत के विद्यार्थियों ने कालू कौमुदी की पुस्तक देखी । उसे देखकर व लोग बहुत खुश हुए। उन्होंने कहा - 'हम संस्कृत व्याकरण पढ़ते हैं पर पढ़ने में मन नहीं लगता। क्योंकि हमें प्रारम्भ से ही बड़े-बड़े व्याकरण ग्रन्थों का अध्ययन कराया जाता है। काल कौमुदी जैसी छोटी-छोटी पुस्तकें पढ़ाई जाएँ तो सहज ही हमारा उत्साह बढ़ जाता है।' श्री भिक्षुशब्दानुशासन लघुवृत्ति भिक्षुशब्दानुशासन को साधारण जन-भोग्य बनाने के लिए मुनि श्री धनराजी और मुनि श्री चन्दनमलजी के संयुक्त प्रयास से इसकी लघुवृत्ति तैयार की गई । लघुवृत्ति का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए वृत्तिकारों की ओर से लिखा गया है Jain Education International tion International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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