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माण्डू के जावड़ शाह
से केवल इतना ही ज्ञात होता है कि वह संघपति मण्डण का पुत्र था (५४) । उल्लेखों की स्वतन्त्रता से अभास होता है कि यह जावह अपने समकालीन लेखकों को प्रभावित नहीं कर सका वह निश्चय ही अपने लब्धप्रतिष्ठ पिता की अपेक्षा कम प्रतिष्ठित था. जिसके बारे में कल्पप्रशस्ति के अतिरिक्त अन्य स्रोतों से भी पर्याप्त जानकारी उपलब्ध है तथा जिसके प्रख्यात नाम के पीछे जावड़ एक परिशिष्ट-सा प्रतीत होता है ।
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क्रमशः संवत् १५२८ तथा १५३२ में लिखित वसुदेवहिण्डी और भगवतीसूत्र की हस्तप्रतियों की पुष्पिकाओं से, जिनकी प्रतिलिपियाँ संघपति मण्डण ( माण्डण ) ने माण्डू के भण्डार के लिये करवायी थीं, विदित होता है कि वह श्रीमाली कुल के ठक्कुर गोत्र से सम्बन्धित तथा खरतरगच्छ का अनुयायी था। वह संघपति जयता तथा उसकी पत्नी होमी का आत्मज था। उसने प्रतिमा-प्रतिष्ठा, देवालय निर्माण, रुपयात्रा आदि मुल्यों से जैन धर्म के प्रति अपनी निष्ठा प्रमाणित की भी तथा सत्रागारों की स्थापना आदि दान कार्य किये थे। उसने पूर्वोक्त भण्डार के लिये समूचे सिद्धान्त (जैन धर्म के पवित्र ग्रन्थ) की प्रतिलिपि भी कराई थी । मुद्रित पुस्तकों के अभाव के उस युग में यह निःसन्देह प्रशंसनीय कार्य था। इस बात पर बल दिया गया है कि यह सब कुछ उसने ईमानदारी से अर्जित विशाल धनराशि खर्च करके सम्पन्न किया था । वसुदेवहिण्डी की पुष्पिका में उसकी पत्नी लीलादे तथा उसके पुत्रों खीमा और करण का तो उल्लेख है, किन्तु जावड़ के विषय में सर्वथा वह मौन है। भगवतीसूत्र की पुष्पिका के अनुसार उसके पुत्रों का नाम संघपति खीमराज तथा संघपति जाउ हैं । जाउ निःसन्देह, जावड़ का नामान्तर है । जावड़ के पुत्र नीना का भी इस पका में उल्लेख आया है।
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शिलालेखों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि श्रीमाली कुल के जयता के पुत्र मण्डप (अथवा माण्डण ) जिन - मूर्तियों की स्थापना की थी तथा जिनचन्द्रसूरि से उनका अभिषेक ( प्रतिष्ठा ) कराया था । जिनचन्द्रसूरि खरतरगच्छ के सत्तावनवें आचार्य और इस प्रकार जिनसमुद्रसूरि के पूर्ववर्ती थे, जो, जैसा पहले कहा गया है, जसधीर के में उस वर्ष श्रेयांस की प्रतिमा स्थापित
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जावड़ का उक्त लेख में कोई उल्लेख नहीं है,
गुरु थे । संवत् १५२४ के एक शिलालेख' से स्पष्ट है कि उसने मण्डप की थी । इस लेख से यह भी ज्ञात है कि वह ठक्कुर गोत्र का था । यदि झांझण जावड़ का भ्रष्ट रूप न हो । संवत् १५३३ के एक अन्य लेख पुत्र जावड़ के नाम आये हैं । इसी लेख में यह निर्देश भी है कि माण्डण ने सुपार्श्व की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवायी थी जिस पर प्रस्तुत लेख उत्कीर्ण है । इसमें स्थान तथा गोत्र के नाम का सर्वथा अभाव है ।
में माण्डण की पत्नी लीलादे तथा उसके
१. विनयसागर प्रतिष्ठा-लेख संग्रह, नं० ६५१
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३. इस मण्डण ( माण्डण ) को उसके समवर्ती अथवा लगभग समवर्ती
इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि उपर्युक्त पुष्पिकाओं तथा शिलालेखों के मण्डण तथा जावड़ (जाउ ) उन ममनाम व्यक्तियों से अभिन्न है, जिनका उल्लेख कल्प- प्रशस्ति में हुआ है ।
खरतरगच्छीय जावड़ का संक्षिप्त विवरण यहीं समाप्त होता है । वह न अपने उदार तथा दूरदर्शी पिता के पगचिह्नों पर चला, न उसने अपने विशालहृदय श्वसुर का अनुगमन किया। जहाँ तक हमें ज्ञात है, उसने ऐसा कोई कृत्य नहीं किया था जिससे उसका नामोल्लेख न्यायोचित कहा जा सकता, यदि लोग उसे उसके गौरवशाली समनामतपागच्छीय जावड़ से अभिन्न मानने की भूल न करते ।
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२. वही, नं० ७५७
समनाम व्यक्तियों, विशेतः मन्त्री मण्डन से
afra मानना भ्रामक है, यद्यपि मन्त्री मण्डन भी माण्डू के वासी तथा श्रीमाली कुल एवं खरतरगच्छ से सम्बन्धित थे । वे सोनगर- गोत्रीय बाहड़ के पुत्र ये
- एम० डी० देसाई जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास (बम्बई, १९३३), ० ६१८-७०४ ४. अगरचन्द नाहटा : माण्डवगढ़ के जैन मन्दिर, मध्यप्रदेश इतिहास परिषद् की पत्रिका, भाग २, पृ० ८०
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