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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ तृतीय खण्ड
हमारे नवीन लोकोत्सव
ऐसे पारम्परिक एवं आस्थापरक अवसरों को भूलकर हम ऐसे अवसरों की खोज में हैं, जहाँ हम हजारों की तादाद में मिल सकें, एकनिष्ठ होकर कोई बात कह सकें, या अपनी श्रद्धा, स्नेह एवं आत्मीयता के सुमन बढ़ा सकें। हजार कोशिश करने पर भी हम अपने स्वातन्त्र्य एवं गणतन्त्र दिवस को राष्ट्रीय त्यौहारों की शक्ल नहीं दे सके । कारण इसका यह है कि हम अभी तक अपने जीवन में राष्ट्रीय भावना को सांस्कृतिक परिवेश प्रदान नहीं कर सके । गांधी, नेहरू को हम भूल गये। रवीन्द्रनाथ ठाकुर, स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण तिलक, लाजपतराय ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, गुरु नानक, दादू, कबीर, तुलसी, मीरा, गालिब, अमीर खुसरो, अब्दुल रहीम खान खाना आदि अनगिनत हिन्दू-मुस्लिम सन्तों ने जो कुछ हमारे देश को दिया है उसे हम भूल गये।
उम्र में जो बड़े हैं, या जो बूढ़े हो चुके हैं, या जिनमें अभी तक पुराने संस्कार शेष हैं, वे तो इस गरिमा से परिचित हैं । वे शास्त्र, इतिहास एवं अध्यात्म की किताबें पढ़ते हैं, पूजा-पाठ, इबादत एवं अध्ययन करते हैं, तथा यथासंभव उस तरह का जीवन भी जीते हैं। नित्य क्रम उनका व्यवस्थित है। चिन्तन, मनन एवं साधना में वे सदा ही लीन रहते हैं, लेकिन आज की पीढ़ी का क्या हाल है। इसे कभी हम सोचते हैं क्या ? केवल उनसे डेडी-मम्मी कहलाने मात्र से हम उनके माता-पिता बन जाते हैं क्या ? उनकी रोज की आवश्यकताएँ पूरी करने मात्र से हम अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं क्या ? सैंकड़ों की तादाद में स्कूल, कालेज खोल लेने मात्र से हमारे बच्चे पढ़-लिख जायेंगे और उन्हें अपने देश की थाती का ज्ञान हो जायेगा क्या ? और ज्ञान हो भी जायगा तो क्या वे उनके अनुकूल जीवन जी सकेंगे ? पाठ्य-पुस्तकों में अपने महापुरुषों की जीवनियों का समावेश करने मात्र से क्या वे अपनी संस्कृति से परिचय पा सकेंगे ?
भारतीय संस्कृति
भारतीय संस्कृति के प्रति आज समस्त विश्व की आंखें लगी हैं। उन्हें यह अनुभव हो गया है कि केवल धन जमा कर लेने तथा भौतिक सुखों पर आधारित रहने मात्र से सुख नहीं मिलता, अन्ततोगत्वा उन्हें उस अनुभव की आवश्यकता है जो उन्हें सच्चा सुख दे सके । धन-वैभव की उनके पास कमी नहीं है । साधन सुविधाएँ, पढ़ाई-लिखाई, रोजगार, मौज-मजे की उनके पास सुविधाएँ बहुत हैं, परन्तु फिर भी वे सुख-चैन की नींद नहीं सोते । वह भावना उनके पास कहाँ है, जो हमें यह बतलाती है कि जितना छोड़ेंगे जितना वैभव और भौतिक सुख के बोझ से हलके होंगे, उतनी ही चैन की नींद लेंगे और आनन्द से मृत्यु का आलिंगन करेंगे। हमारे देश में अमीरों ने जान-बूझकर इसी सुख के लिए गरीबी को आलिंगन किया है। कभी हमारे देश में त्यागी, तपस्वी तथा साधु-सन्त विद्वान आदर पाते थे, पर आज पैसे वाला, धनिक, सत्ताधारी आदर पाता है। एक वह समय था कि स्वामी हरिदास को अकबर ने अपने दरबार में बुलाया था तो सन्त हरिदास ने कह दिया कि अकबर को मेरे संगीत का आनन्द लेना हो तो मेरे पास आवे और सम्राट अकबर को पैदल हरिदास के पास जाना पड़ा। इसी आत्मिक सुख के लिए हमारे बड़े-बड़े सम्राट राज-पाट छोड़कर जंगलों में चले गये। इसी त्याग, तपस्या एवं अपरिग्रह भावना से हमें महावीर और बुद्ध जैसे महापुरुष प्राप्त हुए, जिन्होंने विश्व में जैन एवं बौद्ध संस्कृति के माध्यम से जीवनोत्कर्ष की बात कही। ऐसे ही महान मुनियों की देन से हमें ऐसे-ऐसे ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं, जिन्हें पढ़कर आज समस्त विश्व आश्चर्यचकित है। उन्होंने जन्म, मरण एवं ब्रह्मज्ञान की बातों को खोलकर रख दिया। इस ज्ञान ने जीवन की उन बड़ी-बड़ी समस्याओं एवं प्रश्नों का हल प्रस्तुत किया है, जिन्हें सुलझाने के लिए वैज्ञानिक एवं तात्विक लोग आज भी पच रहे हैं।
हमारी धरोहर का आभास
क्या हम यह नहीं चाहेंगे कि हमारी आज की पीढ़ी को इस धरोहर का आभास नहीं कराया जाय ? क्या हमारे आज के शिक्षा क्रम में इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए कोई योजना है ? हमारे पारम्परिक साहित्य में जो ज्ञान छिपा है वह क्या बच्चों के सामने आता है ?
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