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जैन दर्शन के अनुसार इन सब्धियों का प्रयोगता बिना आलोचना के विराधक होता है। यह अपने संयम को को दूषित करता है। "
कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
इन सिद्धियों के प्रतिपादन में प्रतिस्पर्धा का भाव भी उभरा है। जहाँ पातंजल योग दर्शन की श्रावणसिद्धि से दूरातिदूर शब्दों को सुना जा सकता है वहाँ जैन दर्शन की संभिन्न श्रोता लब्धि से एक ही इन्द्रिय से समग्र विषयों को ग्रहण किया जा सकता है। बौद्ध दर्शन की महायान शाखा में चामत्कारिक प्रयोगों के भरपूर उल्लेख हैं ।
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इन चामत्कारिक शक्तियों का प्रयोग धार्मिक परम्पराओं में बहुत प्राचीन रहा है; साहित्यिक विधा में जिस समय में इनका आकलन हुआ उस समय से विभिन्न ग्रन्थों में इनका परस्पर आदान-प्रदान अवश्य हुआ है । अणिमादि आठ सिद्धियों का उल्लेख योग दर्शन, पौराणिक साहित्य एवं जैन दर्शन ने अपने-अपने ग्रन्थों में किया है। कहीं नामभेद कहीं रूप-भेद के साथ अणिमादि सिद्धियों की तरह अन्य सिद्धियों, लब्धियों एवं विभूतियों में भी परस्पर का विनिमय रूप झांक रहा है। इन सिद्धियों का मूलस्रोत कब से और कहाँ से है, यह एक अनुसन्धान का विषय है ।
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तपस्विभ्योऽधिको योगी, ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कमिभ्यरचाधिको योगी, तस्माद्योगी
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३. भगवती, शतक २०/१०/६८३.
तपस्वियों और ज्ञानियों से भी योगी अधिक श्रेष्ठ है, इतना ही नहीं, अग्निहोत्र आदि कर्म करने वालों से भी योगी अधिक श्रेष्ठ है, अतः हे अर्जुन ! तू योगी बन ।
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भवार्जुन !
- गीता ६।४६
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