________________
• ३२०
कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
स्वीकार किया गया है। यह समाजवादी चिन्तना का सर्जक है, जो वर्ण-भेद, रंग-भेद व लिंग-भेद आदि अमानवीय दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण करने की योजना प्रस्तुत करता है। जैन-दार्शनिकों ने चारित्रिक-श्रेष्ठता, शुद्धता, अहिंसा, प्रेम, करुणा, विश्व-मंगल, सहभाव एवं समानता आदि मानवीय गुणों को अंगीकार कर, उसे मानवोपयोगी सिद्ध किया है। यह न केवल मानव की मंगल-कामना का इच्छुक है, अपितु प्राणीमात्र के लिए मंगल-भावना प्रस्तुत करता है।
जैन-दर्शन मानव को पाँच नियमों का सदुपदेश देता है—अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह ।। ये पांच तत्त्व मानव को कल्याण-पथ पर चलने को प्रेरित करते हैं । वह रत्न-त्रय को मोक्ष व मानव-व्यक्तित्व में पूर्ण सहायक स्वीकार करता है । यह एक अहिंसावादी चिन्तना का सर्जक है जो विश्वकल्याण की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । अहिंसा मानव का सुन्दर आभूषण है, उसे देवता भी प्रणाम करते हैं- "हे गौतम ! जीव की दया, संयम, मन, वचन व काया से शुद्ध ही मंगलमय की संज्ञा है।" मानव का कल्याण सम-दृष्टि से ही सम्भव है । "हमें सबको, समस्त प्राणियों को, चाहे वे मित्र हों या शत्रु और किसी भी जाति के क्यों न हों, समान दृष्टिकोण से देखना चाहिये । इस समतावादी सिद्धान्त में मैत्रीभावना को पर्याप्त बल मिला है, अन्यथा मानव का मानव के प्रति कोई सम्बन्ध न होता।
जैन-दर्शन में मानव का परम लक्ष्य परमार्थ को अंगीकार किया गया है। वह आत्मकल्याण, सामाजिककल्याण व उनके हितों पर भी आवश्यक बल प्रदान करता है । मानव की परोपकार-भावना से ही आत्म-विकास व सद्-भावना का प्रसार होता है।
जैन-दर्शन समाजवादी विचारधारा का पोषक है। व्यक्ति अपने गुण, कर्म व स्वभाव से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र कहा जा सकता है, न कि मात्र जन्म से । इस दर्शन में मानव-जाति की एकता, प्राणीमात्र की समता, समाज-कल्याण, नीति-संवर्द्धन तथा आचार-विचार की श्रेष्ठता पर बल दिया है। समाज में वर्ग-संघर्ष आदि अमानवीय-प्रवृत्तियों से बचने का आदेश दिया है, जो मानवमात्र के लिए हितकारी हैं। ३. मानव और आध्यात्मिक मूल्य
जैन-दर्शन की यह मान्यता है कि मानव का व्यक्तित्व संस्कारों के आवरण से प्रभावित रहता है। इन संस्कारों के प्रभाव कम होने पर ही आत्मा में ज्ञान, सुख व शक्ति की अभिवृद्धि होती है। यह दर्शन आत्म-ज्ञान पर पर्याप्त बल देता है जो नैतिक व आचार-मूल्यों से ही प्राप्त होता है। उसकी उद्घोषणा है कि आध्यात्मिक साधना व उसके अनुशासन से ही मानव का कल्याण संभव हो सकता है । अत: मानव की आध्यात्मिक धरोहर को न केवल जैनदर्शन ही स्वीकार करता, अपितु सभी भारतीय दार्शनिक सम्प्रदाय स्वीकार करते हैं।
१. (i) अहिंसा परमो धर्मः । (ii) जैनदर्शन में अहिंसा का महत्त्वपूर्ण स्थान है, भारतीय चिन्तन-परम्परा में यही एक ऐसा सम्प्रदाय है, जो
अहिंसा-दर्शन की वैज्ञानिक व मानवोपयोगी चिन्तना प्रस्तुत करता है । उसकी उद्घोषणा है कि "अहिंसा शक्ति
शाली की ताकत है, दुर्बल की नहीं।" २. हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्योविरतिव्रतम् ।
-तत्त्वार्थसूत्र ७१ ३. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्ष-मार्गः ।
-तत्त्वार्थसूत्र ७१ ४. उत्तराध्ययन अ० १६, गा० २६. ५. वही, अ० २५, गा० ३३. ६. Jainism and Democracy : Dr. Indra Chandra Shastri, p. 40. ७. भारतीय दर्शन, आचार्य बलदेव उपाध्याय, पृ० १५० 5. The Concept of Man : Radhakrishnan and P. T. Raju, p. 252.
०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org .