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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड
भवप्रपंच से उसकी मुक्ति होना निश्चित हो जाता है । तीर्थकर ऐसा धर्मनायक और लोकनायक है जो अपनी देशना के बल पर जीवों को संसार-सागर से पार उतारने में समर्थ है । सेवा का ऐसा महान् फल तभी मिल सकता है जब सेवा शुद्ध अन्तःकरण से की गई हो, उसमें छल, कपट और अहंकार की गन्ध न हो । भगवान् ऋषभदेव ने अपने पूर्वभव में जीवानन्द वैद्य के रूप में एक रुग्ण मुनि की निष्काम भाव से सेवा की, फलस्वरूप उन्हें तीर्थकर पद की प्राप्ति हुई।
सेवा का क्षेत्र विस्तृत और बहुमुखी है । 'स्थानांग सूत्र' में दस प्रकार की सेवा बताई गई है-आचार्य की सेवा, उपाध्याय की सेवा, स्थविर की सेवा, तपस्वी की सेवा, शिष्य की सेवा, ग्लान-रोगी की सेवा, गण की सेवा, कूल की सेवा, संघ की सेवा और सहधर्मी की सेवा । अन्तिम चार सेवाओं में देश-सेवा और समाज-सेवा का भाव सम्मिलित है।
सेवा में ऊँच-नीच की भावना नहीं रहनी चाहिए। जिसकी सेवा की जा रही है उसके प्रति सेवाभावी के मन में हीनता की भावना नहीं आनी चाहिए। सच्ची सेवा में परमात्मा का वास होता है। पर आज सेवा को दान के साथ विशेष रूप से जोड़ दिया गया है। यद्यपि अपने परिग्रह का त्याग कर, उसका सेवाकार्यों में उपयोग करना अच्छी बात है, पर इसमें दाता सकारात्मक रूप से सक्रिय बन सेवा करने का अवसर नहीं प्राप्त कर पाता। धन कमाने के स्रोत कितने शुद्ध हैं इस पर भी सेवा की शुद्धता की निर्भर है । यदि तस्करी, भ्रष्टाचार जैसे अशुद्ध तरीकों से धन एकत्र कर दान दिया गया है तो वह फलदायी नहीं बनता। सच तो यह है कि मुद्रा के रूप में, पैसे के रूप में दान देने का हमारे यहाँ शास्त्रीय विधान नहीं है । दान के रूप में आहार-दान, औषध-दान, ज्ञान-दान और अभय-दान का विशेष उल्लेख रहा है । भूखे को भोजन देना और वह भी सम्मानपूर्वक, अज्ञानी को ज्ञान देना वह भी विवेकपूर्वक, रोगी को औषध देना वह भी प्रेमपूर्वक और प्राणी को सब प्रकार से निर्भय बना देना, दान का सर्वश्रेष्ठ रूप है। जब तक मन में घृणा है, अभिमान है, लोभ है, भय है, तब तक दान के रूप में ऐसी सेवा नहीं हो सकती। धनवानों को केवल धन का दान देकर ही नहीं रह जाना है । यह तो सेवा का नकारात्मक पक्ष है। व्यापार में स्लीपिंग पार्टनर' जैसा रोल है। उन्हें तो सक्रिय रूप से सेवा में साझीदार बनना चाहिए।
सेवा अहिंसा का सक्रिय रूप है पर हमने अहिंसा को कीड़े-मकोड़ों और पशु-पक्षियों की रक्षा तक ही सीमित कर दिया है। क्या कारण है कि मानव के द्वारा मानव का शोषण होने के खिलाफ हमारी अहिंसा का तेज प्रकट नहीं होता? हम सूक्ष्म अहिंसा के पालन पर तो बल देते हैं, पर मानव को शोषण और अन्याय से बचाने में अग्रणी नहीं बनते ? हमने सेवा को मुख्यत: सन्त-महात्माओं की सेवा तक ही सीमित कर दिया है। विश्व की बृहत्तर मानवता, जो भूख से तड़प रही है, नानाविध रोगों से ग्रस्त है, आश्रय के अभाव में जो बेसहारा है, उसे वाण देने में हमारे हाथ नहीं उठते, पैर नहीं बढ़ते । हमारी सेवा गरीबों की सेवा न बनकर, पूजा-पाठ और बाहरी धार्मिक क्रियाओं की सेवा बनती जा रही है । सेवा का यह रूप आत्मा को परमात्मा बनाने की बजाय पराधीन बनाता जा रहा है । हम ऊँचे स्वर से भगवान् का कीर्तन करते ही न रहें वरन् जो दुःखी और पीड़ित हैं उनकी पुकार सुनें, हम सन्तमहात्माओं के चरण-वन्दन करके ही न रहें वरन् समाज में जो पैरों तले कुचले जाते हैं, जो पददलित हैं, उन्हें ऊँचा उठावें, अपने गले लगायें ।
सेवा से महान् पुण्य होता है । पर यह पुण्य मात्र कुछ देने से ही नहीं होता । शास्त्रों में जिन नौ पुण्यों की चर्चा की गई है उनमें प्रथम पाँच पुण्य-भोजन, पानी, स्थान, विश्राम के साधन, वस्त्र आदि देने से होते हैं पर अन्तिम चार पुण्य कुछ देने से नहीं वरन् मन में दूसरों के प्रति कल्याण की भावना आने से, दूसरों के प्रति हितकारी, प्रिय वचन बोलने से, अपने शरीर द्वारा दूसरों की सेवा करने से तथा गुणीजनों, गुरुजनों आदि के प्रति विनय, नमस्कार, सत्कार आदि करने से होते हैं। आज हम बाहरी क्रिया करने के ही अधिकाधिक अभ्यासी होते जा रहे हैं पर जब तक यह 'करना' हमारे होने' (becoming) बनने में परिणत नहीं होता तब तक सेवा सच्चे अर्थों में होती नहीं । भगवान् महावीर ने सेवा का तीर्थकर गोत्र बनने का जो फल बताया है, वह सेवा की आन्तरिकता से जुड़ने पर ही सम्भव है। हम इस आन्तरिकता से जुड़ सकें इसी में अपना और दूसरों का कल्याण है।
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