________________
तेरापंथ-दर्शन
३०७
.-.-.-.
-.
-.-.-.
-.-.-.-.
-.-.-.
-.-.
-.-.
-.
-.-.
-.-.-.
-.
-.-.
-.-.-.
-.-.-.-.-.
..
(४) जीवों को मारकर जीव की रक्षा करना धर्म नहीं है। (५) असंयमी के जीने की इच्छा करना राग है। (६) उसके मरने की इच्छा करना द्वेष है। (७) उसके तिरने की इच्छा करना धर्म है।
आचार्य भिक्षु की आचार-क्रान्ति आचार्य भिक्षु ने विचार-क्रान्ति के साथ आचार-क्रान्ति भी की। उन्होंने कहा-जो बात मुझे वर्तमान में साधना की दृष्टि से ठीक लग रही है, वही मैं करूंगा । जो बात भगवान् महावीर से चली आ रही है उन्होंने समय देखकर उनमें परिवर्तन भी किया। उनमें से प्रमुख धाराएँ ये हैं
१. शिष्य परम्परा आचार्य भिक्षु शिष्य बनाने की प्रक्रिया को बहुत महत्त्व देते थे । वे हर किसी को दीक्षित बनाने के पक्ष में नहीं थे । अयोग्य दीक्षा पर उन्होंने कड़ा प्रहार किया।
उस समय अयोग्य शिष्यों की बाढ़ आ रही थी, उसका प्रमुख कारण शिष्य परम्परा। अपने-अपने शिष्य बढ़ाने की होड़ में योग्य और अयोग्य की परीक्षा गौण हो जाती थी। येन-केन-प्रकारेण ज्यादा शिष्य हो जाये तो आचार्य बनने का अवसर मिल जाये, या अलग टोला भी बनाया जा सके।
आचार्य भिक्षु ने इसकी जड़ को ही पकड़ लिया। उन्होंने उस पर दोनों ओर से नियन्त्रण किया। उन्होंने संवत् १८३२ के मर्यादापत्र (लिखत) में लिखा कि मेरे बाद आचार्य भारमलजी होंगे। तेरापन्थ में एक ही आचार्य होगा, दो नहीं हो सकेंगे। दूसरी ओर उन्होंने उसी मर्यादा पत्र में एक मर्यादा यह लिखी कि जो शिष्य बनाये वह भारमलजी के नाम से बनाया जाय । इन दोनों मर्यादाओं को बनाकर आचार्य भिक्षु अयोग्य दीक्षा की बाढ़ रोकने में सफल हुए।
२. संघ व्यवस्था भगवान् महावीर के समय में नौ गण व ११ गणधर थे। उनकी समाचारी एक थी। उनका गण विभाजन व्यवस्था की दृष्टि से था। प्राचीन समय में साधु संघ में सात पद थे--(१) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) गणी, (४) गणावच्छेदक, (५) स्थविर, (६) प्रवर्तक, (७) प्रतिनी। इनके द्वारा हजारों-हजारों साधु-साध्वियों का कार्य संचालन होता था। इनमे आचार्य का स्थान सर्वोपरि है। उपाध्याय का काम है संघ में शिक्षा का प्रसार करना । एक व्यक्ति ने स्वामीजी से पूछा-आपके उपाध्याय कौन हैं। आचार्य भिक्षु ने कहा-कोई नहीं । उसने कहातो उपाध्याय के बिना संघ पूर्ण कैसे होगा। उन्होंने उत्तर दिया- संघ पूर्ण है । सातों पदों का काम में अकेला देख
आचार्य भिक्षु ने आज के युग के सन्दर्भ में इस महावीरकालीन परम्परा को समाप्त किया। उन्हें ऐसा लगा कि यह पद परम्परा रहेगी तो संघ में एकता नहीं रहेगी। इसी कारण उन्होंने लिखा---- ''वर्तमान आचार्य अपने गुरु-भाई अथवा अपने शिष्य को उत्तराधिकारी चुने, उसे सब साधु-साध्वियाँ सहर्ष स्वीकार करें और सभी एक ही आचार्य की आज्ञा में रहे।
__ इस मर्यादा का तेरापन्थ के आत्मार्थी साधु-साध्वियों ने बहुत ही निष्ठा से पालन किया है। आचार्य श्री तुलसी नवमे आचार्य हैं। इन्हें पूर्ववर्ती आचार्य श्री कालुगणी ने २२ वर्ष की अवस्था में अपना उत्तराधिकारी चुना। उस समय पांच सौ के लगभग साधु-साध्वियां थीं। उनमें बयःप्राप्त भी थे, विद्वान् भी थे, सभी प्रकार के थे फिर भी पूर्ववर्ती आचार्य को जितना सम्मान दिया गया, वही सम्मान आचार्य श्री तुलसी को संघ ने दिया ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org