________________
कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा : जीवन परिचय
११
(८) भोजनोपरान्त सायं साढ़े छः बजे तक कन्या विद्यालय का कार्य । (९) सायं साढ़े छः बजे से रात्रि आठ बजे तक दो सामायिक और उसके बाद शयन ।
साधनामय जीवन Vउपर्युक्त दिनचर्या से परिलक्षित होता है कि आपका सम्पूर्ण जीवन साधना का अपूर्व तीर्थ है। आप गृहस्थों में ऐसे गृहस्थ हैं जो नितान्त निस्पृह एवं अन्तर्मुख हैं। श्रावकत्व में साधुत्व की यह गंगा आप में प्रतिपल प्रवाहित होती रहती है। हर क्षण कर्मों के बन्धन को क्षय करने की क्षुधा आपकी वाणी एवं व्यवहार से प्रकट होती है । आगमों में सामायिक को साधुत्व का अल्प स्वरूप कहा गया है। आप एक दिन-रात में ऐसी उन्नीस सामायिक करते हैं । सामायिक में बारह हजार गाथाओं का नित्य चिन्तन करते हैं तथा माला फेरते हैं । सत्रह घण्टों की मौन साधना, प्रातः व सायं नियमित प्रतिक्रमण, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन, रात्रि में आहार एवं पानी का त्याग, आपके संयममय जीवन को रूपायित करते हैं। आहार में भी कुल सात द्रव्य यथा-पानी, रोटी, साग, दूध, पापड़, चावल आदि ही ग्रहण करते हैं। पानी उबला हुआ, दिन में भोजन के समय के अतिरिक्त दो बार से अधिक नहीं पीते हैं । यात्रा अथवा प्रवासकाल में भी यही क्रम चलता है किन्तु सामायिक की संख्या परिस्थितिवश उतनी नहीं रहती है फिर भी कम से कम दो सामायिक करना अनिवार्य कर रखा है। आप स्वाध्यायप्रिय हैं । सैकड़ों गीतिकायें, भजन, दार्शनिक बोल, थोकड़े आदि कंठस्थ हैं। आप नित्य नंगे पाँव ही चलते-फिरते हैं। तीन गर्मी या सर्दी भी आपको अपने पथ से विचलित नहीं कर सकती है। वेशभूषा अत्यन्त सरल व सामान्य धारण करते हैं । सिले-सिलाये कपड़े संवत् २०१२ से नहीं पहनते हैं । सफेद चोल-पट्टा, पछेवड़ी एवं हाथ में मुंहपट्टी (रूमाल) से युक्त साधु सदृश वेश-भूषा में आप सन्त-महात्मा दृष्टिगोचर होते हैं। वर्ष भर में पच्चीस मीटर से अधिक कपड़े का प्रयोग पहनने, ओढ़ने, बिछाने में नहीं करते । शरीर, परिवार, धन-सम्पत्ति, मकान, समाज आदि का कोई ममत्व नहीं, मान-अपमान से अनासक्त, पूर्ण अपरिग्रही, अणुव्रती व आत्मदमन में आपका विलक्षण जीवन जैन जगत की अमूल्य निधि है । वस्त्र-सीमा, खाद्यसीमा, समय-सीमा और अर्थ-सीमा आपके साधनामय जीवन के जीवन्त और जागृत लक्षण हैं। आचार्य श्री तुलसी के शब्दों में आप सन्त हैं, ऋषि हैं और गृहस्थ-साधु हैं ।
त्याग व तपस्या साधनामय जीवन में त्याग व तपस्या का आपका आधारभूत अवलम्बन सबको आश्चर्यान्वित करने वाला है । क्या कोई मानव अपनी आवश्यकताओं, इच्छाओं और भावनाओं के उद्रेक को इस प्रकार दमित व शमित कर सकता है, जैसा ग्रन्थनायक श्री सुराणाजी ने किया है । जिसने भी आपकी साधना व संयममय जीवन के बारे में सुना, उसने उसे अविश्वसनीय बताया; परन्तु प्रत्यक्ष अवलोकन करके वे अवाक् रह गये । यहाँ आप द्वारा भिन्न-भिन्न अवसरों पर एवं क्रमशः किये गये त्याग, पच्चक्खाण एवं तपस्या के कतिपय उपलब्ध आँकड़े प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिससे आत्मोत्थान के प्रति आपकी ललक का लालित्य अनुभव किया जा सके । (१) वि० सं० १९८८ ज्येष्ठ में तेरापंथ के अष्टम आचार्य श्री कालूगणी से केवल सात हरी सब्जी व फल
यथा-तरोई, भिण्डी, आलू, मोसम्मी, सेव, अंगूर, और पान को छोड़कर शेष समस्त हरी सब्जियां व फल खाने के त्याग ग्रहण कर लिये । नाटक व सिनेमा
देखने और जुआ खेलने के भी त्याग ले लिये । (२) वि० सं० १९८६ कार्तिक शुक्ला १३ को बुलारम में आचार्य श्री कालूगणी के शिष्य घासीरामजी महाराज
से इस बात के त्याग ले लिये कि जब पास में एक लाख रुपये नकद, एक लाख का सोना-चाँदी, एक लाख का मकान और एक लाख रुपये हाथ से खर्च हो जायेंगे,
उसके बाद व्यापार बन्द कर दूंगा। (३) वि० सं० २००१ भाद्रपद शुक्ला १२ को राणावास में श्री जीवनमलजी स्वामी से निम्न बातों के त्याग ले लिये
-हिलते-चलते प्राणियों को मारने की इच्छा से नहीं मारना । -स्वयं के लिए पांच बीघा से अधिक जमीन में खेती नहीं करना ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org