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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड
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सिद्धराज जयसिंह मारा जावेगा और पशुबलि बन्द करने से हमारा जो अपमान हुआ, उसका इस तरह बदला लेंगे।' जगदेव ने फिर प्रश्न किया, 'ऐसा कोई रास्ता बताओ जिससे सिद्धराज जयसिंह की मृत्यु नहीं हो।' जोगिनियों ने कहा कि 'बत्तीस लक्षणों से युक्त पुरुष का अगर तुम हमारे सामने बलिदान करो तो हम इस युद्ध में तटस्थ हो जायेंगी।' इस पर जगदेव स्वयं अपना सिर इन जोगिनियों को चढ़ाने के लिए उद्यत हुआ । उसने कहा, 'मैं तैयार हूँ किन्तु सिद्धराज जयसिंह को लम्बी उम्र दो, उस पर कृपा रखो।' जोगिनियों ने जगदेव की परीक्षा लेनी चाही, बोलीं, 'तुम वास्तव में बत्तीस लक्षणों से युक्त पुरुष हो और शूरवीर भी हो । तुम्हारे बलिदान से हम प्रसन्न हो जायेंगी।' यह सुनते ही जगदेव ने अपनी म्यान से चमचमाती तलवार निकाली और अपनी गर्दन काटने के लिये ज्योंही उसने तलवार चलाई, उसका हाथ जोगिनियों ने पकड़ लिया। उन्होंने जगदेव का जय-जयकार किया। वे बोलीं, 'तुम्हारे साहस को देखकर हम प्रसन्न हैं। तुम लम्बी उम्र प्राप्त करो किन्तु शत्रु की सेना का आक्रमण अवश्य होगा, जाओ और उसके बचाव की तैयारी करो। सिद्धराज जयसिंह का कुछ भी नहीं बिगड़ेगा।' यह आश्वासन प्राप्त कर जगदेव वहाँ से लौट आग।
अशा
महलों में लौटकर उसने सिद्धराज जयसिंह को उपर्युक्त सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया, किन्तु अपना मस्तक भेंट चढ़ाने की बात उसने नहीं बताई । युद्ध की तैयारी होने लगी। उन्हीं दिनों हेमसूरि महाराज सिद्धपुर पाटन में आये । इनकी कीर्ति सुनकर जगदेव तथा उनके सातों पुत्र भी हेमसूरि महाराज के दर्शनार्थ आने-जाने लगे। जोगिनियों की भविष्यवाणी के अनुसार म्लेच्छों की सेना सिद्धपुर पाटन पर चढ़ आई सिद्धराज की सेना पहले से ही तैयार थी । जगदेव के सबसे बड़े पुत्र सूरजी को मुख्य सेनापति बनाया गया । युद्ध के लिए प्रस्थान से पूर्व सूरजी, हेमसूरि महाराज के दर्शन के लिये गये, और युद्ध में विजयी होकर लौटने का आशीर्वाद माँगा। इस पर हेमसूरि बोले कि 'हम जैन साधु हैं, सावद्य कृत्य में हम स्वीकृति नहीं दे सकते, लेकिन यदि तुम जैनधर्म अंगीकार कर लेते हो तो मैं अपना प्रयास करूंगा।' सूरजी हेमसूरि से प्रभावित तो पहले ही थे इस पर सुरजी ने कहा कि 'यदि युद्ध में हमारी विजय होगी तो आपके आदेश की तत्काल पालना करूंगा।' हेमसूरि महाराज ने जैनधर्म स्वीकार करने का आश्वासन मिलने पर 'विजय पताका यन्त्र' बनाकर उसकी भुजा पर बाँध दिया । वहाँ से सूरजी युद्ध के मैदान में गये, घमासान लड़ाई के बाद म्लेच्छ सेना भाग खड़ी हुई । सूरजी के नेतृत्व में सेना विजयी होकर लौटी। सूरजी सिद्धराज जयसिंह की राजसभा में . आये। सिद्धराज जयसिंह ने सूरजी की योग्यता की भरपूर प्रशंसा की और कहा कि तुम वास्तव में 'सूररणा' हो । 'सूररणा' के इस सम्बोधन से सूरजी के वंशज आगे चलकर 'सूररणा' से 'सुराणा' कहलाए। हेमसूरि महाराज को युद्ध में प्रस्थान से पूर्व दिये गये वचन के अनुसार जगदेव के सातों पुत्रों ने मूर्तिपूजक जैनधर्म स्वीकार कर लिया । लोकाशाह ने मूर्तिपूजा के विरोध में जब क्रान्ति का बिगुल बजाया तो उसके बाद सुराणा गोत्र के उनके कुछ वंशज स्थानकवासी बन गये और जब आचार्य भिक्षु के नेतृत्व में तेरापंथ का अभ्युदय हुआ तो उसके बाद कुछ सुराणा परिवारों ने तेरापंथी धर्म स्वीकार कर लिया। सुराणा गोत्र की कुलदेवियाँ, क्रमशः सुसाणी, लोसल और मोरखाणा बताई जाती हैं।
वंश-परम्परा
सुराणा गोत्र के मूलपुरुष सूरजी द्वारा जैनधर्म स्वीकार कर लेने के बाद इस वंश की हर तरह से बढ़ोतरी हुई । धन-सम्पत्ति और राज-परिवार की दृष्टि से तो इसकी प्रतिष्ठा बढ़ी ही, पारिवारिक प्रसार भी खूब हुआ। धीरे-धीरे इस वंश के लोगों ने वाणिज्य-व्यवसाय अपना लिया और इस हेतु गुजरात से मुख्यतः राजस्थान एवं अन्य प्रान्तों में जाकर बसने लगे। राजस्थान में सुराणा गोत्र के परिवार बीकानेर, चूरू, जोधपुर, पाली, सोजत, नागोर, उदयपुर, जयपुर आदि स्थानों पर बसे हुए हैं। श्री केसरीमलजी सुराणा के वंशज राणावास में आकर कब बसे तथा सुराणा गोत्र के मूलपुरुष सूरजी के बाद इनके परिवार की वंश-परम्परा कैसे चली, इस बारे में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती, किन्तु एक मान्यता के अनुसार सुराणा परिवार राणावास गाँव में पाली जिले के आऊवा गाँव से आकर बसा तथा यहाँ पर व्यापार-वाणिज्य आरम्भ किया। इनके पूर्वजों की जानकारी श्री मोतीलालजी सुराणा से प्राप्त होती है, इस जानकारी का वंश-वृक्ष सामने पृष्ठ पर छपे अनुसार है।
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