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जैन रहस्यवाद
१९.
क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का परिपालन कहा जा सकता है। साधनावस्था में इन तीनों का सम्यक् मिलन निर्वाण की प्राप्ति के लिये अपेक्षित है।
__ साधक और कवि की रहस्यभावना में किंचित् अन्तर है। साधक रहस्य का स्वयं साक्षात्कार करता है पर कवि उसकी भावात्मक भावना करता है । यह आवश्यक नहीं कि योगी कवि नहीं हो सकता अथवा कवि योगी नहीं हो सकता। काव्य का तो सम्बन्ध भाव से विशेषतः होता है और साधक की रहस्यानुभूति भी वहीं से जुड़ी हुई होती है । अत: इतिहास के पन्ने इस बात के साक्षी हैं कि उक्त दोनों व्यक्तित्व समरस होकर आध्यात्मिक साधना करते रहे हैं । यही कारण है कि योगी कवि हुआ है और कवि योगी हुआ है। दोनों ने रहस्यभावना की भावात्मक अनुभूति को अपना स्वर दिया है । भावना अनुभूतिपरक होती है और वाद किसी धर्म, सम्प्रदाय अथवा साहित्य से सम्बद्ध होकर ससीमित हो जाता है। इस अन्तर के होते हुए भी रहस्यभावना का सम्बन्ध अन्ततोगत्वा चूँकि किसी साधना विशेष से सम्बद्ध रहता है इसलिए वह भी कालांतर में अनुभूति के माध्यम से एक वाद बन जाता है।
अध्यात्मवाद और दर्शन जहाँ तक अध्यात्मवाद और दर्शन के सम्बन्ध का प्रश्न है, वह परस्पराश्रित है। अध्यात्मवाद योग साधना है जो साक्षात्कार करने के एक साधन का बौद्धिक विवेचन है। अध्यात्मवाद अनुभूति पर आधारित है जब कि दर्शन ज्ञान पर आधारित है । अध्यात्मवाद तत्त्वज्ञान प्रधान है और दर्शन उसकी पद्धति और विवेचन करता है। इस प्रकार दर्शन की पृष्ठभूमि में ही दोनों का संगम संभव हो पाता है। दोनों के अन्तर को समझने के लिए हम दर्शन के दो भेद कर सकते हैं-आध्यात्मिक रहस्यवाद और दार्शनिक रहस्यवाद । आध्यात्मिक रहस्यवाद आचारप्रधान होता है और दार्शनिक रहस्यवाद ज्ञानप्रधान । अतः आचार और ज्ञान की समन्वयावस्था ही सच्चा अध्यात्मवाद अथवा रहस्यवाद है।
रहस्यभावना किसी न किसी सिद्धान्त अथवा विचार-पक्ष पर आधारित रहती है और वही जब तर्क पर आधारित हो जाती है तो उसका दार्शनिक पक्ष प्रारम्भ हो जाता है। दर्शन को न तो जीवन से पृथक् किया जा सकता है और न अध्यात्म से । इसी प्रकार काव्य का सम्बन्ध भी दर्शन से बिल्कुल तोड़ा नहीं जा सकता। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्रत्येक आध्यात्मवादी अथवा रहस्यवादी काव्य के क्षेत्र में आने पर दार्शनिक साहित्यकार हो जाता है। यही उसकी रहस्यभावना की अभिव्यक्ति विविध क्षेत्रों में विविध रूप से होती है। आदि कवि वाल्मीकि भी कालांतर में दार्शनिक बन गये । वेदों और आगमों के रहस्य का उद्घाटन करने वाले ऋषि-महर्षि भी दार्शनिक बनने से नहीं बच सके। वस्तुतः यहीं उनके जीवन्त-दर्शन का साक्षात्कार होता है और यहीं उनके कवित्व रूप का उद्घाटन भी। काव्य की भाषा में इसे हम रहस्यभावना का साधारणीकरण कह सकते हैं। परमतत्त्व की गुह्यता को समझने का इससे अधिक अच्छा और कौन-सा साधन हो सकता है ?
रहस्यवाद और अध्यात्मवाद अध्यात्म अन्तस्तत्त्व की निश्चल गति वधि का रूपान्तर है। उसका साध्य परमात्मा का साक्षात्कार और उससे एक रूपता की प्रतीति है। यह प्रतीति किसी न किसी साधनापथ अथवा धर्म पर आधारित हुए बिना संभव नहीं। साधारणतः विद्वानों का यह मत है कि धर्म या सम्प्रदाय को रहस्यवाद के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता क्योंकि धर्म या सम्प्रदाय ईश्वरीय शास्त्र (Theology) के साथ जुड़ा रहता है। इसमें विशिष्ट-आचार, बाह्यपूजन पद्धति, साम्प्रदायिक व्यवस्था आदि जैसी बातों की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है जो रहस्यवाद के लिए उतने आवश्यक नहीं।
पर यह तथ्य संगत नहीं। प्रथम तो यह कि ईश्वरीशास्त्र का सम्बन्ध प्रत्येक धर्म अथवा सम्प्रदाय में उस रूप में नहीं जिस रूप में वैदिक अथवा ईसाईधर्म में है। जैन और बौद्ध दर्शन में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता-हर्ता नहीं माना
१. आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, रहस्यवाद, पृ० ६.
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