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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा : जीवन परिचय
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तो आप घबराये नहीं, बीहड़ जंगलों में हिंसक जानवरों से सामना करना पड़ा तो आप डरे नहीं, कभी गाड़ी बीच रास्ते में ही खराब हो गयी तो हिम्मत नहीं हारे और समय पर भोजन नहीं मिला तो भूख से तिलमिलाये नहीं, अपने लक्ष्य की ओर सतत सक्रिय रहना आपका एकमात्र ध्येय था।
महाभारत काल में द्रोणाचार्य धनुर्विद्या में जब अर्जुन की परीक्षा ले रहे थे तब उन्होंने अर्जुन से पूछा कि तुम्हें क्या-क्या दिखाई दे रहा है तो अर्जुन ने बताया कि मुझे केवल चिड़िया की आँख नजर आ रही है, ठीक यही स्थिति अर्थ-संग्रह के समय सुराणाजी की रहती है। उन्हें केवल अपने लक्ष्य का ही ध्यान रहता है । शारीरिक कष्ट, सगे-सम्बन्धी सब गौण हो जाते हैं। वि०सं० २००८ में जब आप चन्दा करने बम्बई गये हुए थे, वहीं आपको समाचार मिला कि आपके भाई श्री अमोलकचन्दजी सुराणा, जो आपके चाचा श्री जवानमलजी सुराणा के गोद चले गये थे, उनका देहान्त हो गया है तो आपने उसी समय एक साथ चोला (चार उपवास) पचक्ख लिए और वहीं से सीधे मद्रास के लिए रवाना हो गये । अपने लक्ष्य के प्रति समर्पण का ऐसा उदाहरण और कहाँ मिलेगा?
वास्तव में चन्दा प्राप्त करना भी एक कला है । इस कला में आपका सानी कोई दूसरा नहीं है, जहाँ से जो भी मिला आपने उसे चन्दे के रूप में ग्रहण कर लिया किसी ने गालियाँ दी तो उसे भी आपने बड़े स्नेह से संवारा, किसी ने आपका तिरस्कार किया या अपमान किया अथवा गाल पर तमाचा रख दिया तो भी आपके चेहरे पर शिकन नहीं आई और अपने स्नेहपूर्ण व्यवहार से उसका हृदय जीतकर उससे चन्दा प्राप्त कर ही लिया । ऐसे भी अवसर आये जब आपको चन्दा स्वेच्छा से, सहर्ष और जबरदस्ती दिया गया। चन्दा वसूल करने की इस कला ने आपको मरुभूमि के मालवीय के रूप में ख्यात कर दिया । खानदेश की घटना है, एक व्यक्ति के यहाँ पर जब आप चन्दा लेने पहुचे तो उसने ५०१)रु० तत्काल सहर्ष प्रदान कर दिये । ये पैसे देकर वह बहुत प्रसन्न हुआ और सोचने लगा कि आज मैंने एक अच्छे काम के लिए चन्दा दिया है, यह मेरा अहोभाग्य है, मैं धन्य हो गया। सुराणाजी को जब चन्दादाता के इन भावों का पता चला तो आपने कहा कि 'भाई ! पैसे देने से न तो पुण्य होता है और न पाप होता है, यह तो सांसारिक कर्तव्य है।' चन्दा देने वाले ने काकासा के जब ये विचार सुने तो उसने कहा, 'मुझे मेरे पैसे वापस लौटा दीजियेगा, जहाँ पैसा देने से धर्म नहीं होता वहाँ मुझे पैसे नहीं देने।' यह सुनकर ग्रन्थनायक काकासा ने ५०१)रु० तुरन्त उसे लौटा दिये । जब आप रवाना होने लगे तो कुछ क्षण के लिए रुककर चन्दादाता बोला-'मैंने आपका बहुत समय लिया, क्षमा प्रार्थी हूँ, और यह कहते-कहते उसने ५०१)रु० के बजाय ७५१)रु० काकासा के सामने बढ़ा दिये भौर बोला, 'लीजिये तथा रसीद काटकर दीजिये।'
इसी प्रकार एक बार आप मेवाड़ क्षेत्र में चन्दा लेने पहुंचे । विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते हुए आप गोगुन्दा भी गये । वहाँ से भी आपको एक अच्छी रकम चन्दे में मिली और जब आप चन्दे का काम पूरा करके आगे के पड़ाव के लिए रवाना होगये तो एक युवक आपके पीछे दौड़ता हुआ आया एवं रास्ता रोककर बोला, 'आप मेरी जन्मभूमि में पधारे और मुझे पता भी नहीं,' यह कहकर उसने ५१)रु० चन्दे के रूप में काकासा की ओर बढ़ा दिये। यह उसकी बचत के पैसे थे। उस युवक के बारे में जानकारी प्राप्त करने पर उसने बताया कि 'मैं राणावास में पढ़ चुका हूँ, मेरा जीवन जिस संस्था ने बनाया, उसका कर्ज उतारने के लिये अभी मेरे पास इतने ही रुपये हैं।' आखिर यह क्या जादू है, लोग चन्दा माँगने जाते हैं तो उन्हें मिलता नहीं और आपको लोग चन्दा चलाकर देते हैं । इसका रहस्य उनका निःस्वार्थ एवं कर्मठ व्यक्तित्व है । चन्दा प्राप्त करने की आपकी इस अपूर्व क्षमता और कला के सामने आज सब नतमस्तक हैं।
वि०सं० २००१ में जब से आपने संस्था का काम अपने हाथ में लिया तब से ही संस्था के विकास हेतु अर्थसंग्रह के लिये वर्ष में छः माह तक आप राणावास से बाहर रहते थे। यह क्रम वि०सं० २०१४ तक निरन्तर और नियमित चलता रहा। अब तक विद्यालय, छात्रावास एवं इन दोनों के संचालन हेतु इतना धन संचय हो गया कि समस्त व्यय की पूर्ति सहज ही हो जाती थी। ऐसी स्थिति में आपने वि०सं० २०१४ से वि०सं० २०२६ तक विश्राम किया और केवल संस्था के प्रशासनिक कार्यों को ही देखते रहे। वि०सं० २०२७ में कालेज खोलने का निर्णय हुआ। कालेज, छात्रावास आदि नये भवनों के निर्माण तथा विभिन्न खर्चों की पूर्ति हेतु विपुल धन राशि की आवश्यकता अनुभव
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