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अणुव्रत और अणुव्रत आन्दोलन
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प्रारम्भ में केवल यही भावना थी कि जो लोग प्रतिदिन सम्पर्क में आते हैं, उनका नैतिकता के प्रति प्टिकोण बदले। फलस्वरूप जिन व्यक्तियों ने अपने नाम प्रस्तुत किये थे, उनके लिए नियम-संहिता बनाई गई एवं राजलदेसर में मर्यादा महोत्सव के अवसर पर आदर्श श्रावक संघ के रूप में वह योजना जनता के सम्मुख रखी गई।
इस योजना में भी सुधार के दरवाजे खुले रखे गये। धीरे-धीरे इस योजना के लक्ष्य को विस्तृत कर सबके लिए एक सामान्य नियम-संहिता प्रस्तुत की। फलस्वरूप सर्वसाधारण के लिए रूपरेखा निर्धारित हो गई और संवत् २००५ में फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को सरदार शहर में आचार्य श्री ने अणुव्रत आन्दोलन का प्रवर्तन किया। इसी सन्दर्भ में आचार्यश्री की नव-सूत्री योजना और तेरह-सूत्री योजना के द्वारा लगभग तीस हजार व्यक्तियों को नैतिक उद्बोधन मिल चुका था। इस प्रकार अणुव्रत आन्दोलन के लिए सुदृढ़ भूमिका तैयार हो गई।
प्रारम्भ में अणुव्रती व्यक्तियों के संगठन का नाम अणुव्रती संघ रखा गया। फिर एक सुझाव आया कि संघ संकुचित शब्द है, जबकि आन्दोलन अपेक्षाकृत मुक्त एवं विशाल भावना का परिचायक है। सुझाव मानकर इसका नाम अणुव्रती संघ से अणुव्रत आन्दोलन कर दिया गया।
निर्देशक तत्त्व- इसके निर्देशक तत्त्व कुछ इस प्रकार निर्धारित किये गये :-.-
१. अहिंसा-जैन धर्म अहिंसा की मूल भित्ति पर टिका हुआ है । अहिंसा जैन धर्म की आत्मा है। किसी को जान से न मारना ही अहिंसा नहीं है, अपितु किसी के प्रति मन में दुश्चिन्तन व खराब भावना नहीं करना भी अहिंसा है। किसी के प्रति अपशब्दों का प्रयोग न करना, निर्दयतापूर्वक व्यवहार न करना, शोषण नहीं करना, रंग-भेद या भाषायी आधार पर किसी मनुष्य को हीन या उच्च नहीं समझना, सह-अस्तित्व में विश्वास रखना, किसी के अधिकारों का अपहरण न करना भी उच्च कोटि की अहिंसा है।
२. सत्य-'सत्यमेव जयते नानृतम्' सत्य की ही जीत होती है, झूठ की नहीं। इस आदर्श वाक्य को जीवन में उतारकर यथार्थ चिन्तन करना एवं यथार्थ भाषण करना, दैनिक चर्या, व्यवसाय व व्यवहार में सत्य का प्रयोग करना कठिन अवश्य है, लेकिन सम्भव है । सत्याणुव्रती को अभय और निष्पक्ष रहना चाहिये और असत्य के सामने घुटने नहीं टेकने चाहिये।
३. अचौर्य-अचौर्य अणुव्रत का पालन करने वाले को दूसरों की वस्तु को चोरवृत्ति से नहीं लेना चाहिये । कठोर अचौर्य व्रत का पालन नहीं कर सकने वाले को कम से कम व्यवसाय व व्यवहार में प्रामाणिक रहकर एवं सार्वजनिक सम्पत्ति का अनावश्यक दुरुपयोग तो नहीं करना चाहिये।
४. ब्रह्मचर्य-ब्रह्मचारी नीरोग बना रहता है। सामान्य व्यक्ति पूर्ण ब्रह्मचर्य की साधना नहीं कर सकता, अत: पुरुष पर-स्त्रीगमन एवं स्त्रियाँ परपुरुष के साथ मैथुन का तो परित्याग कर ही सकती हैं। इसी प्रकार पवित्रता का अभ्यास, खाद्य-संयम, स्पर्श-संयम एवं चक्षु-संयम भी ब्रह्मचर्य की ओर बढ़ने के संकेत हैं।
५. असंग्रह-प्रत्येक अणुव्रती का यह कर्तव्य है कि वह धन को आवश्यकता-पूर्ति का साधन माने। धन जीवन का लक्ष्य नहीं है। अनावश्यक सम्पत्ति का संग्रह करना समाज का शोषण एवं घोर अपराध है । अधिक नहीं तो कम से कम दैनिक उपभोग की वस्तुओं के अपव्यय से तो बचना ही चाहिये।
वैचारिक पक्ष-व्रत एक आत्मिक अनुशासन होता है। वह ऊपर से थोपा हुआ नहीं है, अपितु अतर से स्वीकार किया हुआ होता है। अन्य का शासन परतन्त्रता का सूचक होता है।
_व्रत से आत्म-शक्ति का संवर्धन होता है। दोषों के निराकरण का यह एक अचूक उपाय है। अणुव्रत आन्दोलन की पृष्ठभूमि व्रत ही है।
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