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________________ १६० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड देखा जा सकता है । मत की विभिन्नता और विचित्रता के वातावरण में भी सन्तुलन बनाये रखना तब सम्भव है जब सहनशीलता का दृष्टिकोण हो। इसके लिए महावीर स्वामी के बताये हुए अनेकान्त और स्याद्वाद की महती उपादेयता है। ___ महावीर स्वामी के तत्त्वचिन्तन के अनुसार प्रत्येक पदार्थ अनन्त गुणों का पुज है। सूक्ष्म परमाणु में भी और प्रत्येक जीव में भी अनन्त विशेषताएँ और अनन्त शक्तियाँ हैं । एक ही वस्तु विभिन्न दृष्टिकोणों से विभिन्न रूपरंग-युक्त, नित्य-अनत्य, सत्-असत्, एक-अनेक इत्यादि हो सकती है। पदार्थ में परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाली भी कतिपय विशेषताएँ हो सकती हैं । उसकी इस अनेकरूपता को प्रतिपादित करता है अनेकान्तवाद । ___ वस्तु के अनन्त गुणों के ज्ञान के लिए जिस अनन्तज्ञान की आवश्यकता है उसे 'केवलज्ञान' कहते हैं। जो ज्ञान की उच्चतम इन्द्रियातीत अवस्था है । इन्द्रियों और शब्दों द्वारा वस्तु का सीमित ज्ञान होता है, जिसमें उसके अनन्त गुणों में से कुछ गुणों का बोध हो सकता है। वस्तु के अनन्त गुणों में से किसी एक गुण का बोध करना नय है । नय की दृष्टि एक समय में किसी एक गुण को ग्रहण करते हुए भी दूसरे गुण को अमान्य नहीं करती। इसके भाषात्मक प्रकटीकरण की शैली को 'स्याद्वाद' कहा गया है। स्याद्वाद 'ही' को पकड़कर बैठने के बजाय 'भी' का प्रयोग करता है । एक पुरुष बहिन की दृष्टि से भाई, पत्नी की दृष्टि से पति, पुत्र की दृष्टि से पिता और पौत्र की दृष्टि से दादा हो सकता है। वह पुरुष भाई ही नहीं है, पति ही नहीं है, पिता ही नहीं है, दादा ही नहीं है, बल्कि वास्तव में वह भाई भी है, पति भी है, पिता भी है, और दादा भी है तथा और भी बहुत-कुछ है। यह प्रश्न लगभग सबने सुना होगा-एक परिवार के दो पिता और दो पुत्र सड़क पर जा रहे हैं ; बताइये वे कितने व्यक्ति हैं ? इस प्रश्न का उत्तर जिसने 'चार' दिया उसे सही नहीं माना गया और जिसने 'तीन' कहा उसे पूरे अंक मिल गये । क्यों ? इसलिए कि दादा, अपने पुत्र और पौत्र के साथ है, उनमें से सबसे अधिक आयु वाले की अपेक्षा जो पुत्र है, वही व्यक्ति सबसे कम आयु वाले की अपेक्षा से पिता है । कहने वालों की अपनी-अपनी अपेक्षा होती है, परन्तु केवल उस 'ही' का आग्रह मतभेद और कलह का कारण बन सकता है। अत: स्याद्वाद आग्रह के स्थान पर समन्वय का प्रेरक है। इसे अपनाने वाला सामने वाले के दृष्टिकोण को समझने का प्रयास करेगा, न कि उसका तिरस्कार । यह बौद्धिक उदारता लोकतन्त्रात्मक कार्य-प्रणाली के लिए अनिवार्य है । व्यक्तियों में अपनी-अपनी 'सूझ' के बजाय किसी एक के विचार की 'गूज' लोकतन्त्र की सभा को अधिनायकवाद के नक्कारखाने में बदल देगी। तानाशाह यही तो कहते हैं : "ऐ साधारण झुंड वालो ! स्वयं के लिए सोचने की शक्ति तुम में नहीं है; वह काम तो असाधारण मनुष्य ही कर सकते हैं। हम हैं असाधारण मनुष्य, हम तुम्हारे लिए सोचने का काम कर लेगे और तब तुम्हें समझा देंगे कि वह तुम्हारा ही विचार है जो कि हमने तुम्हें बताया है।"१ जैसे बाजार में मिलने वाले सिले-सिलाये कपड़े 'फिट' कर दिए जाते हैं वैसे ही पके-पकाये विचार भी शिरोधार्य करने पड़े तो ज्ञान-गंगा का प्रवाह अथाह सागर की ओर न बढ़ सकेगा, न चिन्तन की चोटियों पर चढ़कर विश्व-दर्शन का प्रयास कोई तेनसिंह कर पायेगा। फिर तो युग-युग में गेलीलियो दण्डित होता रहेगा; युग-युग में मीरां को यही कहना पड़ेगा “राणा भेज्या जहर पियाला" । न तो कोई मनीषी अपनी अपेक्षा से सत्य का वर्णन कर सकेगा, न कोई आइन्स्टीन सापेक्षवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित कर सकेगा। ऐसे दमघोटू 'लोकतन्त्र' से तो संभवतः लोग 'परलोकतन्त्र' को ही बेहतर मानने लगें। इसलिए सच्चा जनतन्त्र तो वैचारिक स्वातन्त्र्य में ही पनप सकता है । स्याद्वाद उसके लिए प्राणदायी पर्यावरण प्रस्तुत करता है। अपनी पूर्णता और सफलता के लिए लोकतन्त्र एक और महान् योगदान जैन धर्म से ग्रहण कर सकता है; ___ 1. - . “You, the common herd, are not capable of thinking for yourselves, it is only uncommon men who can do that. We are unconimon men, and we will do the thinking for you, and then persuade you that you have thought for yourselves what we tell you to think.” --Charleton Kemp Allen: Democracy & the Individual, p. 52, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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