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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड
श्रय काका साहब !
आपके चरण-कमलों के समीप समासीन होकर हमने केवल पुस्तक का पाठ ही नहीं अपितु हृदय की साक्षी में जीवन का पाठ पढ़ा। जीवन की अबोध अवस्था में तोतली वाणी बोलते हुए हम आपकी शरण में आये थे, आपने अबोध को सुबोध व प्रबोध बनाने का मनयोगपूर्वक जो प्रयत्न किया उसका किन शब्दों में हम आपका आभार माने । अथवा आपकी अमूल्य कृपा को आभार के मूल्य में चुकाकर कृतघ्नता के भागी क्यों बने ? अमरबेल के समान अमर बनी रहे यह आपकी कृपा और बरसता रहे सदा आपका आशीर्वाद । जिससे प्रेरणा का स्रोत अजस्र व अनवरत प्रवाहित होता रहे। आदरणीय!
आज जिन सुन्दर शब्दों में और हृदय की सद्-भावनाओं के साथ आप हमें बिछुड़ने की इस बेला में हमारे हृदय के साभार को भार रूप बना रहे हैं उससे हमारा हृदय मनोवेदना से आकुल-व्याकुल हो रहा है, नेत्रों से बरबस आँसू उमड़ने की तैयारी कर रहे हैं।
अन्त में हम आप से यह प्रार्थना करते हैं कि आपका आशीर्वाद व वरदहस्त हमारे सिर पर सदा बना रहे जिससे हम भविष्य में उन्नति के मार्ग में चलने में उत्साहित बने रहें।
हम हैं आपके
कृपाकांक्षी, विनम्र, आज्ञाकारी शिष्य सन १९६७-६८
आदर्श निकेतन के दशम कक्षा के छात्र
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