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राजस्थान की जैन कला [] श्री अगरचन्द नाहटा
नाहटों की गुवाङ, बीकानेर (राज० )
जैन मान्यता के अनुसार भगवान ऋषभदेव के पहले मनुष्यों का जीवन पशु-पक्षियों की तरह बंधा-बँधाया रूढ़ या प्राकृतिक था । भगवान ऋषभदेव ने युग की आवश्यकता और भावी विकास की संभावनाओं पर ध्यान देकर सबसे पहले क्रान्ति की। जीवन को नये ढंग से जीना सिखाया। अपने पुत्र और पुत्रियों को पुरुषोचित बहत्तर और स्त्रियों की ६४ विद्याएँ या कलाएँ सिखाई जिनके अन्तर्गत उपयोगी ललित कलाओं का समावेण हो जाता है अतः कला के विकास और प्रसार में भगवान ऋषभदेव का सर्वाग्रणी स्थान है। उन्होंने अपनी पुत्री ब्राह्मी को वर्णमाला के अक्षर सिखाए जिससे लेखन कला का विकास हुआ। दूसरी पुत्री सुन्दरी को अंक सिखाए जिससे गणित विज्ञान विकसित हो सका। असि मसि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य आदि जीवनोपयोगी उद्योग सिखाए उससे पहले मनुष्य बहुत कुछ वृक्षों पर निर्भर था। उन वृक्षों के द्वारा सभी इच्छित और आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति होती थी । इसीलिये उन्हें 'कल्पवृक्ष' कहा गया है। भवन निर्माण, कुम्भकार, सुधार आदि की सभी कलाएँ अपभदेव से ही प्रकाशित और विकसित हुई। विविध रूपों में इन्हीं का आगे चलकर अद्भूत विकास हुआ।
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कला को देश-काल, क्षेत्र और धर्म में विभाजित करने की आवश्यकता नहीं; पर प्रत्येक काल, क्षेत्र, धर्म और संस्कृति में कुछ मौलिक ऐसी विशेषताएं होती हैं, जिससे कलाओं के अध्ययन में सुविधा हो जाती है इसलिए यहाँ भारतीय कला में से क्षेत्र की दृष्टि से राजस्थान, धर्म और संस्कृति की दृष्टि से जैन धर्म व संस्कृति को प्रधानता देते हुए विचार किया जायेगा ।
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कला के अनेक प्रकार है, उनमें से मन्दिर मूर्तिकला और चित्रकलाओं के नाथित विविध रूपों पर यहाँ संक्षेप में प्रकाश डाला जायेगा । जैन लेखन कला पर विस्तार से स्वर्गीय आगम- प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी का गुजराती में स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है। जैन मूर्तिकला पर डॉ० उमाकान्त शाह ने विशेष अध्ययन करके विस्तृत शोध प्रबन्ध लिखा है और जैन चित्रकला पर भी डा० मोतीचन्द आदि के ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं । डॉ० सरयू मोदी ने भी चित्रकला का अच्छा अध्ययन किया है पर उनका शोध प्रबन्ध अभी तक प्रकाशित हुआ देखने में नहीं आया ।
जैन आगमों के अनुसार भगवान महावीर के ७० वर्ष बाद की ओसियां में जैन मन्दिर और मूर्ति का निर्माण हुआ था, जिसकी प्रतिष्ठा पार्श्वनाथ संतानीय रत्नप्रभसूरि ने की पर ओसियां का वर्तमान मन्दिर आठवीं शताब्दी से पहले का नहीं लगता। जैन मूर्तियां भी राजस्थान में आठवीं शताब्दी से अधिक संख्या में मिलने लगती है। यद्यपि सांचोर परम्परा इससे पहले की जरूर रही होगी । 'विविध तीर्थ कल्प' आदि ग्रन्थों से पता चलता है कि मालनगर, आदि स्थानों में इससे काफी पहले जैन मन्दिर और मूर्तियां बन चुकी थीं। संवत् ६३५ में जालौर में रचित 'कुवलयमाला' ग्रन्थ की प्रशस्ति में लिखा है कि
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तस्स खमासमणगुणा णामेणं जक्खयत्त गणिणामो ॥ सीसो महइ महापा आसि तिलोए विपयडजसो ॥७॥ तस्स य बहुया सीसा तववीरी अवयजलाद्धि संपणज ॥ एम्मो गुज्जरदिसो किमदेव
एहि ॥
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