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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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आपकी प्रमुख कृतियाँ नैषधीयचरितम् की जैनराजी टीका एवं भगवती सूत्र की टीका है। नैषधीय महाकाव्य की टीका परिमाण ३६०० श्लोकों का है।
(३७) समयसुन्दर-आप का जन्म सांचोर निवासी रूपसी एवं लीलादेवी के घर सं० १६१० में हुआ। आपने सकलचन्दगणि से दीक्षा ग्रहण की। सं० १६४० में गणि, १६४६ में वाचनाचार्य एवं १६८१ में उपाध्याय पद क्रमशः जैसलमेर, लाहौर एवं लवेरा में प्राप्त किया। सिन्ध के अधिकारी मखनूम महमूद शेख काजी और जैसलमेर के रावत भीमसिंह आपसे प्रभावित थे। समयसुन्दर ने अपने प्रभाव का उपयोग कर सिन्ध, जैसलमेर, खंभात, मण्डोवर एवं मेड़ता के शासकों से जीवहिंसा-निषेध की घोषणा करवाई। कश्मीर विजय के समय अकबर के सम्मुख कहे गये वाक्य-"राजा नो ददते सौख्यम्" को आधार बनाकर अष्टलक्षी की रचना की। आप व्याकरण, साहित्य, साहित्यशास्त्र आदि के प्रकाण्ड पण्डित थे।
आपकी प्रमुख रचनाएँ निम्न प्रकार हैं-१. अष्टलक्षी, २. जयसिंह सूरि-पदोत्सवकाव्य, ३. रघुवंशटीका, ४. कुमार-संभव-टीका, ५. मेघदूत टीका, ६. शिशुपालवध तृतीयसर्ग की टीका, ७. रूपकमाला अवचूरि, ८. ऋषभभक्तामर।
उक्त सारिणी से ज्ञात होता है कि आप कालिदास एवं माघ से अत्यधिक प्रभावित थे। ४ रचनाएँ तो दोनों कवि के काव्यों पर टीका ही हैं। जयसिंह पदोत्सव काव्य भी रघुवंश के श्लोकों की पादपूर्ति ही है। इसी भांति ऋषभभक्तामर भी वस्तुत: भक्तामर स्तोत्र की पादपूर्ति ही है।
वाग्भटालंकार एवं वृत्तरत्नाकर की टीका एवं भावशतक काव्यशास्त्र के ग्रन्थ हैं। जबकि सारस्वत रहस्य, लिंगानुशासन अवणि, शब्द रूपावली, अनिटकारिका आदि ग्रन्थ व्याकरण की टीकाएँ एवं रचनाएँ हैं ।
कल्पसूत्रटीका, दशवकालिक सूत्र टीका, नवतत्त्व प्रकरण टीका आदि टीकायें एवं विशेष-शतक, गाथा-सहस्री. सप्तस्मरण एव अनेक स्तोत्रों की रचना कर आपने बहुश्रुतता का परिचय दिया।
(३८) गुणविनय-जयसोमोपाध्याय के शिष्य गुणविनय को १६४६ में वाचक पद प्राप्त हुआ। सम्राट जहाँगीर ने आपसे अत्यधिक प्रभावित होकर कविराज की उपाधि प्रदान की । गुणविनय मूलत: टीकाकार हैं उनकी सभी रचनायें टीकाएँ ही हैं।
१. खण्डप्रशस्तिटीका, २. नेमिदूत-टीका, ३. दमयन्ती-कथाचम्पू टीका, ४. रघुवंश टीका, ५. वैराग्यशतक टीका, ६. संबोध-सप्तति टीका, ७. कर्मचन्द्रवंश प्रबन्ध टीका, ८. लघुशांतिस्तवटीका, ६. शीलोपदेशलघुवृत्ति ।
प्रतीत होता है कि मुनि गुणविनय साहित्य (काव्य) प्रेमी थे। ये स्वयं काव्य की रसचर्वणा कर दूसरों के लिए भी पानक रस तैयार कर देते थे। ये टीका ग्रन्थ वास्तव्य में काव्यानन्द में आयी ग्रन्थियों को खोलने के लिए ही लिखे गये हैं।
(३६) श्री बल्लभोपाध्याय-ज्ञान विमलोपाध्याय के शिष्य श्री वल्लभोपाध्याय का कार्यक्षेत्र जोधपूर, नागौर बीकानेर एवं गुजरात था। आप व्याकरण कोष के मूर्धन्य विद्वान्, कवि एवं सफल टीकाकार थे।
आपकी कृतियों में ८ मूल ग्रन्थ एवं १२ टीकायें हैं । विजयदेव-माहात्म्य काव्य एवं विद्वत्प्रबोधकाव्य महाकाव्य की श्रेणी की रचनाएँ हैं । शेष रचनाएँ स्तुतियाँ एवं प्रशस्तियाँ हैं जिनमें अरजिनस्तव एवं रूपजीवंशप्रशस्ति प्रमुख हैं।
१. महोपाध्याय समय सुन्दर म० विनयसागर २. यह वृत्ति विनयसागर के सम्पादन में राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान से प्रकाशित हो गई। ३. यह कृति सुमति सदन कोटा से प्रकाशित है। ४. प्रथम कृति रा० प्रा० वि० प्र० जोधपुर से एवं द्वितीय कृति सुमति सदन कोटा से प्रकाशित है।
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