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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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अंकों के लिए विशेष शब्दों का व्यवहार मिलता है-यथा ३ के लिए रत्न, ६ के लिए द्रव्य, ७ के लिए तत्व, पन्नग और भय, ८ के लिए कर्म, तनु, मद, और के लिए पदार्थ आदि ।
इसमें अंकों सम्बन्धी ८ परिकर्मों का उल्लेख किया है-जोड़, बाकी, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन और घनमूल । शून्य और काल्पनिक संख्याओं का विचार भी किया गया है। भिन्नों के भाग के विषय में मौलिक विधियाँ दी हैं।
लघुसमावर्तक का आविष्कार महावीराचार्य की अनुपम देन है।
रेखागणित और बीजगणित की अनेक विशेषताएँ इस ग्रन्थ में मिलती हैं। त्रि गणित की विशिष्ट विधियाँ दी हैं। समीकरण को व्यावहारिक प्रश्नों द्वारा स्पष्ट कि' समकुट्टीकरण, विषमकुट्टीकरण और मिश्रकुट्टीकरण आदि गणित की विधियों काना और कामक्रोधादि अन्तरंग
यह ग्रन्थ भास्कराचार्यकृत लीलावती से बड़ा है। महाबीराचार्य ने नरने और स्वयं किसी के वश में श्रीधर के शितिका' का उपयोग किया है। गणित के क्षेत्र में महावीराचासाथ तत्पश्चरण द्वारा संसारचक्र के
गन और मर्यादावज्रवेदी द्वारा कीर्तिमान है, जो उनकी अमरकीति का दीपस्तम्भ है।
दक्षिण भारत में इस ग्रन्थ का बहुमान है। इस पर वरदराज आदि की संस्कृत टीकाएँ उपलब्ध हैं । ११वीं शती में पावुलूरिमल्ल ने इसका तेलुगु में अनुवाद किया है। वल्लभ ने कन्नड़ में तथा अन्य विद्वान् ने तेलुगु में टीका लिखी है।
षत्रिंशिका (८५० ई० के लगभग)-महावीराचार्य कृत। यह लघु कृति है, जिसमें बीजगणित के व्यवहार दिये हैं। व्यवहारगणित, क्षेत्रगणित, व्यवहाररत्न, जैन-गणित-सूत्र-टीकोदाहरण और लीलावती (सं० ११७७, ई० ११२०)
ये सब ग्रन्थ कन्नड़ भाषा में हैं। इनके लेखक राजादित्य नामक कवि-विद्वान् थे। यह दक्षिण में कर्नाटक क्षेत्रांतर्गत कोंडिमंडल के 'यूविनवाग' नामक स्थान के निवासी थे। इनके पिता का नाम श्रीपति और माता का नाम वसन्ता था । इनके गुरु का नाम शुभचन्द्रदेव था । ये विष्णुवर्द्धन राजा के मुख्य सभापण्डित थे। अत: इनका काल ई० सन् ११२० के लगभग है । इनको 'राजवर्म', 'भास्कर' और 'वाचिराज' भी कहते थे। ये कन्नड़ के प्रसिद्ध कवि और गणित-ज्योतिष के महान विद्वान् थे। 'कर्णाटक कविचरित' में इनको कन्नड़ भाषा में गणित का ग्रन्थ लिखने वाला सबसे पहला विद्वान् बताया है।
पाटीगणित (सं १२६१, ई० १२०४) अनन्तपालकृत । यह पल्लीवाल जैन गृहस्थ विद्वान् थे। इसके ग्रंथ पाटीगणित में अंकगणित सम्बन्धी विवरण है।
अनन्तपाल ने नेमिचरित महाकाव्य रचा था। उसके भाई धनपाल ने सं० १२६१ में 'तिलकमंजरीकथासार' बनाया था।
कोष्ठकचिंतामणि (१३ वीं शती)-शीलसिंहसूरिकृत। ये आगमगच्छीय आचार्य देवरत्नसरि के शिष्य थे। इनका काल १३वीं शती माना जाता है। इनका गणित सम्बन्धी 'कोष्ठकचितामणि' नामक ग्रन्थ प्राकृत में १५० पद्यों में लिखा हुआ है। इसमें ६, १६ २० आदि कोष्ठकों में अंक रखकर चारों ओर से मिलने पर अंक समान आते हैं। इसमें अनेक मन्त्र भी दिये हैं।
इन्होंने अपने ग्रन्थ पर संस्कृत में 'कोष्ठकचितामणि-टीका' लिखी है। गणितसंग्रह-यत्लाचार्यकृत । ये प्राचीन जैनमुनि थे।
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