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भद्धा-सुमन
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छात्रों के प्राण
- श्री सोहनलाल कातरेला (बंगलौर) राणावास का यह शिक्षा केन्द्र आपका जीवन एवं हम छात्र भी आपका पितृवत् प्यार पाकर फूले नहीं छात्र आपके प्राण रहे हैं । छात्रावास एवं छात्रों की प्रत्येक समाते हैं । आपको जब भी और जहाँ भी देखते, विनयवत् गतिविधि पर आपका खयाल रहा है। छात्रों को हमेशा आपके चरणों में गिरकर आनन्द का अनुभव करते । आपने अपना पुत्र मान उन्हें पिता का प्यार, वात्सल्य एवं जहाँ काका साहब श्री केसरीमलजी से पिता का प्यार अनुराग दिया है। छात्रों की उन्नतिमय गतिविधियों को पाया वहाँ छात्रों ने आपकी धर्मपत्नी (श्रीमती सुन्दरबाई देख आप फूले नहीं समाते हैं । समय-समय पर प्रगतिशील सुराणा) में माता का दुलार पाया। आप समय-समय पर छात्रों को पारितोषिक इत्यादि देकर औरों को प्रगति के छात्रावास की गतिविधियों, भोजनालय इत्यादि की देखलिए प्रोत्साहित करते रहे हैं। आप विनीत एवं उत्साही भाल किया करती हैं। जिससे मनुष्यों द्वारा संचालित इस छात्रों के प्रति जहाँ मृदु हैं, वहाँ उच्छखल एवं अविनीत पाकशाला में किसी प्रकार की कमी नहीं रह पाती । आपने छानों के प्रति वज्र से भी कठोर हैं। आपकी यह कठोरता अपने घरों से दूर आये छात्रों को प्यार-दुलार देकर किसी उन्हें सही राह पर लाने के लिए होती है। कवि ने प्रकार की कमी महसूस नहीं होने दी। हम छात्र भी कहा है
आपको ममतामय "माताजी" के नाम से ही सम्बोधित "स्वर्ण विघर्षण से ज्यों,
करते सत्य निखरता संघर्षों के द्वारा"
आप दोनों का नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे उक्त कथनानुसार आप पथ-भूले राही को मृदुता से, जाने योग्य है। समाज एवं छात्र हमेशा ऐसे पुरुषों का प्यार एवं दुलार से एवं अन्त में कठोरता से राह पर लाने ऋणी रहेगा जिन्होंने अपना जीवन समाज के कर्णधारों का अथक प्रयास करते हैं ।
के जीवन निर्माण के लिए समर्पित किया।
त्यागलोक को दिव्य आत्मा
7 श्री अशोकभाई संघवी 'जैन' (बाव) आपको मैंने उस पदयात्रा में अविरल गति से चलते में था भाभर क्षेत्र । जहाँ पर साध्वीश्री किस्तुरांजी विराज देखा था, जब पूज्य जीवनतन्त्री के तार हृदयसम्राट् युग- रहे थे। मेरा सद्भाग्य था, मुझे भी अच्छा अवसर मिला प्रधान गुरुदेव दक्षिण के पावन अंचल को छूकर अपनी मातृ- उनके साथ यात्रा करने का ।। भूमि की पवित्र गोद की पग ओर बढ़ा रहे थे । मैं भी उस वह चित्र की झाँकियाँ आज भी मेरे नयनों के समक्ष समय साथ में था, तब सेवा में मैंने उनकी समता को देखा, ऐसे ही ताजी हैं, जैसे मुस्कराता हुआ ताजा फूल । हम उनके जीवन को सादगी को परखा और......"मेरे दिल में सुबह की पावन वेला में बाव से चलकर भाभर आये और भावना जगी उस दिव्यव्यक्ति को अन्तर् से जानने की। आपने साध्वीश्री के दर्शन कर आपकी दर्शनों की भावना
मैंने देखा उनका दैनिक नित्यकर्म जैसे वह यहां पहुंचे, सफल बनायी और हम वहाँ से चले कच्छ की ओर । प्रायः सूर्य अस्ताचल की ओर ढल रहा था, सन्ध्या का कच्छ की सीमा में प्रवेश किया एवं सर्वप्रथम 'रायर' पवित्र वातावरण था और आप उसी वक्त सामायिक में क्षेत्र में गये जहाँ पर पूज्य साध्वीश्री विनयश्रीजी बैठ गये और इसके पश्चात् ही क्षेत्र के सब सज्जनों से विराजती थीं। वहाँ के लोगों ने श्रीमान् सुराणाजी साहब उन्होंने मिलना प्रारम्भ किया। उनके दिल में अपार को देखकर ही उनकी जबान से वे शब्द निकल पड़े कि आनन्द था बाव क्षेत्र को देखकर । और यहाँ से कुछ चन्दा सचमुच ही एक दिव्य आत्मा हमारे गाँव में आयी है, हम प्राप्त कर आप कच्छ की धरती पर जाना चाहते थे । बीच आपकी भावनाओं का आदर व सम्मान करेंगे:....."और
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