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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
अत: ओसियां नगर विक्रम संवत् २२२ ( १६५ ई० ) में अस्तित्व में था और सम्भवत: पर्याप्त पहले बसा होगा।
___३. तीसरा मत तथा कथित आधुनिक इतिहासकारों का है जो यह मानते हैं कि नवमी विक्रमी शताब्दी से पहले न तो ओसियां नगर का ही अस्तित्व था भौर न ओसवाल जाति का ही। इसके पश्चात् ही किसी समय भीनमाल के राजकुमार उपलदेव ने मण्डोर के प्रतिहार शासक का आश्रय ग्रहण कर ओसियां की स्थापना की होगी।
पहले मत के सम्बन्ध में जैन परम्परा साक्ष्य के अतिरिक्त अभी तक कोई ऐसा प्रमाण नहीं है जो इस बात की पुष्टि करता हो कि वीर निर्वाण संवत् ७० में ओसियां नगर विद्यमान था। विक्रम संवत् से चार सौ वर्ष पूर्व न तो भीनमाल नगर का ही अस्तित्व था और न जैन धर्म राजस्थान तक पहुंच पाया था। उस समय न तो उपकेश गच्छ अस्तित्व में था और न ही आचार्य रत्नप्रभसूरि की तत्कालीनता का कोई प्रमाण उपलब्ध है। स्पष्टतः यह मत प्राचीनता का बाना पहनाकर ओसवाल जाति को भारत की एक अत्यन्त प्राचीन जाति सिद्ध करने का प्रयास मात्र है,
और कुछ नहीं। नाभिनन्दनजिनोद्धार प्रबन्ध में वीर निर्वाण संवत् के ७०वें वर्ष में रत्नप्रभसूरि द्वारा कोरटंकपुर' तथा उपकेश पट्टन के मन्दिरों में महावीर स्वामी की प्रतिमा की एक ही मुहूर्त में प्रतिष्ठा किये जाने का उल्लेख इस ग्रन्थ के बहुत बाद में लिखित होने के कारण केवल परम्परा को निबद्ध करने का प्रयास है न कि कोई ऐतिहासिक तथ्य क्योंकि पांचवीं शताब्दी ईर्सा-पूर्व का कोई भी मन्दिर तथा मूर्ति ओसियाँ तथा कोरटंकपुर से तो क्या भारत के किसी भी स्थान से अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है।
द्वितीय मत के अनुसार ओसियां की स्थापना विक्रम संवत् २२२ अर्थात् १६५ ईस्वी से पूर्व हो चुकी थी और वहाँ उपलदेव के शासनकाल में रत्नप्रभसूरि द्वारा ओसवाल जाति के १८ मूल गोत्रों की स्थापना की गई। अभी तक कोई ऐसा प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ है जिसके आधार पर यह सिद्ध किया जा सके कि १६५ ईसवी में ओसियां में उपलदेव का शासन था, आचार्य रत्नप्रभसूरि उस समय विद्यमान थे, जैनधर्म राजस्थान में उस समय तक प्रविष्ट हो चुका था और जिन अठारह मूल गोत्रों का उल्लेख किया जाता है, वे उस समय विद्यमान थे।
अब रहा तृतीय मत-तथाकथित आधुनिक इतिहासकारों का मत-कि विक्रमी संवत् ६०० से पहले । ओसवाल जाति और ओसियां नगर का अस्तित्व न था। ओसवाल जाति का इतिहास नामक ग्रन्थ में ही जहाँ इन . उपरिलिखित तीनों मतों का विवरण उपलब्ध है, हरिभद्रसूरि विरचित 'समराइच्च कहा' के श्लोकों का सन्दर्भ दिया गया है जिनमें उस नगर के लोगों का ब्राह्मणों के कर से मुक्त होना तथा ब्राह्मणों का उपकेश जाति के गुरु न होना उल्लिखित है। हरिभद्र का समय संवत् ७५७ से ८५७ के बीच माना गया है जिससे स्पष्ट है कि संवत् ८५७ से पहले अर्थात् ८०० ईस्वी में उएस नगर एक समृद्ध एवं प्रसिद्ध नगर था।
ओसियां के महावीर जैन मन्दिर से प्राप्त संवत् १०१३ के प्रशस्तिलेख से पता चलता है कि इस मन्दिर की स्थापना प्रतिहार शासक वत्सराज के शासनकाल में की गई थी। वत्सराज प्रतिहार का उल्लेख जिनसेन विरचित 'जैन
१. कोरटंकपुर के इतिहास तथा पुरातनता के लिए देखें-Jain, op. cit., pp. 284-86. २. भण्डारी, उपरोक्त, पृ० १-२० । ३. तस्मात् उकेशज्ञाति नाम गुरवो ब्राह्मणाः न हि ।
उएस नगरं सर्व कर • ऋण-समृद्धि - मत् ।। सर्वथा सर्व-निर्मुक्तमुएसा नगरं परम् । तत्प्रभृतिः सजाताविति लोक-प्रवीणम् ॥
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