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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षण्ठ खण्ड
की थी। एक वार आप नागौर पधारे तब वहाँ के भावकों में परस्पर कलह का वातावरण चल रहा था। आपने अपने व्याख्यान में स्वयं रचित क्षमाछत्तीसी की व्याख्या द्वारा उपदेश देकर कलह मिटाया जिसका वर्णन क्षमाछत्तीसी की प्रशस्ति है
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नगर मांहि नागौर नगीनउ जिहाँ जिनवर प्रासादजी श्रावक लोग वस अति सुखीया, धर्म तणइ परसादजी ||३४|| क्षमा छत्तीसी खांत कीधी, आतप पर उपगार जी । सांभलता धावक पण समज्या, उपसम धरयउ अपारजी ||३५||
श्री जिनसागरसूरि अष्टक में भी अपने "श्री जावालपुरे च योधनगरे श्रीनागपुर्या पुनः " वाक्यों द्वारा नागौर का उल्लेख किया है।
श्री जितलाभसूरिजी महाराज सं० १०१५ में बीकानेर से बिहार करके पधारे और १८ वर्ष पन्त बाहर जब आप नागौर आये तब बीकानेर वाले आश लगाए बैठे थे पर आप वहाँ से साचौर पधार
ही विचरे।
गए । यतः
अटकलता आसी अवस, पिण मन वसीयो पुजरे,
निरख विचै सहिर भलौ
नागौर । सानीर ॥२२॥
इस प्रकार प्राचीन साहित्य के परिशीलन से नागौर में जैनाचायों के विचरण करने का उल्लेख पाया जाता है। और साधु यतियों व साध्वियों के चातुर्मास बराबर होते ही आये हैं । नागौर में चातुर्मास के समय विद्वान मुनियों ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है, जिसकी कुछ सूची इस प्रकार है
सं० १६३२ में कवि कनकसोम ने जिनपालित जिनरक्षित रास की रचना की। सं० १६३६ मा० सु० ५ साधुतिजी ने नमराजाय चौ० की रचना की। सं १६४५ में श्रीवल्लभ उपाध्याय ने शीलोंछ नाममाला सं० १६५५ में कनकसोम कवि ने थावच्चा सुकोशल चरित्र, सं० १६५६ में सूरचंद्रगणि (वीरकलश शि० ) ने शृंगाररसमाला, सं०] १६०३ में विद्यासागर (सुमतिको शि० ) ने कलावती चौ १६८२ में सं० १६६८ में सहजकीर्ति ( हेमनन्दन शि० ) से व्यसन सत्तरी, सं० १६८४ में पुण्यकीर्ति ( हंसप्रमोद शि० ) ने मोहछत्तीसी, सं० १७३२ में मतिरत्न शि० समयमाणिक्य (समरथ ) ने मत्स्योदर चौपई रंची है। सुखनिधान शि० महिमामेरु ने मिना फाग और समुन्दरी ने मातीसी की रचना की है। सं० १०१७ में रायचंद ने दशावली [सं०] १२२ में दीपचंद ति कर्मचन्द्र ने पदार्थ वोधिनी टोडा ०१०१६ में सुमतिवर्द्धन के सिध्य चारि सागर ने साधुविधि प्रकाशभाषा का निर्माण किया। सं० १९५२ में द्वितीय चिदानंदजी महाराज ने “आत्मभ्रमोच्छेदन भानु" ग्रन्थ की रचना की थी ।
महान् प्रतापी मुनिराज श्री मोहनलालजी महाराज नागौर के यति श्री रूपचन्दजी के पास सं० १९०० में दीक्षित हुए थे और ३० वर्ष पर्यन्त यति पर्याय में रहकर सं० १९३० में क्रियोद्धार किया था । आप बड़े समभावी थे और आपका शिष्य परिवार खरतरगच्छ व तपागच्छ दोनों में सुशोभित है ।
दादाबाड़ी
नागौर का दादाबाड़ी अति प्राचीन है। श्री जिनकुशलसूरिजी के पट्टधर थी जिनधरी के स्वर्गवास के समय सं० १४०९ में अवश्य निर्मित हुई होगी, पर चरणपादुका इतनी प्राचीन उपलब्ध नहीं है। सं० १९२३ में प्रतिष्ठा होने का लेख श्री हरिसागरिसूरजी के लेखसंग्रह में है । इसके पश्चात् सं० १७७५ में पं० गजानन्द मुनि के उपदेश से खरतरगच्छ संघ ने जीर्णोद्धार कराया था जिसका अभिलेख इस प्रकार है—
“संवत् १७७५ वर्षे शाके प्रवर्तमाने मासोत्तम मासे द्वितीय श्रावण मासे शुक्लपक्षे १२ तिथौ गुरुवारे
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