________________
नमस्कार महामन्त्र : एक विश्लेषण
१२३
आवश्यकनियुक्ति में वज्रसूरि के प्रकरण में उक्त घटना का उल्लेख भी नहीं है। वज्रसूरि दस पूर्वधर हुए हैं। उनका अस्तित्वकाल ई०पू० पहली शताब्दी है। शय्यं भवसूरि चतुर्दश पूर्वधर हुए हैं और उनका अस्तित्वकाल ई० पू० ५-६ शताब्दी है। उन्होंने कायोत्सर्ग को नमस्कार के द्वारा पूर्ण करने का निर्देश किया है। दोनों चूणियों और हारिभद्रीय वृत्ति में नमस्कार की व्याख्या ‘णमो अरहताणं' मन्त्र के रूप में की है।
आचार्य वीरसेन ने षट्खंडागम के प्रारम्भ में दिये गये नमस्कार मन्त्र को निबद्ध-मंगल बतलाया है। इसका फलित यह होता है कि नमस्कार महामन्त्र के कर्ता आचार्य पुष्पदन्त हैं। आचार्य वीरसेन ने यह किस आधार पर लिखा, इसका कोई अन्य प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। जैसे भगवती सूत्र की प्रतियों के प्रारम्भ में नमस्कार महामन्त्र लिखा हुआ था और अभयदेवसूरि ने उसे सूत्र का अंग मानकर उसकी व्याख्या की, वैसे ही आचार्य बीरसेन ने षट्खंडागम की प्रति के प्रारम्भ में लिखे हुए नमस्कार महामन्त्र को उसका अंग मानकर आचार्य पुष्पदन्त को उसका कर्ता बतला दिया। आचार्य पुष्पदन्त का अस्तित्व-काल वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी (ई० पहली शताब्दी) है। खारवेल का शिलालेख ई० पू० १५२ का है । उसमें 'नमो अरहताणं' 'नमो सव्वसिद्धाणं' ये पद मिलते हैं। इससे नमस्कार महामन्त्र का अस्तित्व काल आचार्य पुष्पदन्त से बहुत पहले चला जाता है। शय्यंभवसूरि का दशवकालिक में प्राप्त निर्देश भी इसी ओर संकेत करता है । भगवान् महावीर दीक्षित हुए तब उन्होंने सिद्धों को नमस्कार किया था। उत्तराध्ययन के बीसवें अध्ययन के प्रारम्भ में 'सिद्धाणं नमो किच्चा, संजयाणं भावओ' सिद्ध और साधुओं को नमस्कार किया गया है। इन सबसे यह निष्कर्ष निकलता है कि नमस्कार की परिपाटी बहुत पुरानी है और उसका रूप भी बहुत पुराना है किन्तु भगवान् महावीर के काल में पंच मंगलात्मक नमस्कार मन्त्र प्रचलित था या नहीं--इस प्रश्न का निश्चयात्मक उत्तर देना सरल नहीं है । महानिशीथ के उक्त प्रसंग के आधार पर कहा जा सकता है कि वर्तमान स्वरूपवाला नमस्कार महामन्त्र भगवान महावीर के समय में प्रचलित था। किन्तु उसकी पुष्टि के लिए कोई दूसरा प्रमाण अपेक्षित है। आवश्यकनियुक्ति में एक महत्त्वपूर्ण सूचना मिलती है। नियुक्तिकार ने लिखा है-पंच परमेष्ठियों को नमस्कार कर सामायिक करना चाहिए। यह पंच नमस्कार सामायिक का ही एक अंग है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नमस्कार महामन्त्र उतना ही पुराना है जितना सामायिक सूत्र । सामायिक आवश्यक का प्रथम अध्ययन है। नंदी में आई हुई आगम की सूची में उसका उल्लेख है। नमस्कार महामन्त्र का वहाँ एक श्रुतस्कन्ध या महाश्रुतस्कन्ध के रूप में कोई उल्लेख नहीं है । इससे भी अनुमान किया जा सकता है कि यह सामायिक अध्ययन का एक अंगभूत रहा है । सामायिक के प्रारम्भ में और उसके अन्त में पंच परमेष्ठी को नमस्कार किया जाता था। कायोत्सर्ग के प्रारम्भ
१. दस्वेआलियं, ५।१।६३ : “णमोक्कारेण पारित्तए"। २. (क) अगस्त्य० चूणि, पृ० १२३ :
'नमो अरहताणं' त्ति एतेण वयणेण काउस्सग्गं पारेत्ता । (ख) जिनदासचूणि, पृ० १८६. (ग) हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र १८० :
नमस्कारेण पारयित्वा 'नमो अरहताणं इत्यनेन' । ३. षट्खंडागम, खंड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ४२ :
इदं पुण जीवट्ठाणं णिबद्धमंगलं । एतो इमेसि चोद्दसण्हं जीवसमासाणं इदि एदस्ससुत्तस्सादीए णिवद्ध ‘णमो अरहंताणं' इच्चादि देवदाणमोक्कारदसणादो। आयारचूला, १५॥३२ :-"सिद्धाणं णमोक्कार करेइ।" आवश्यकनियुक्ति, गाथा १०२७ : कयपंचनमोक्कारो करेइ सामाइयंति सोऽभिहितो। सामाइयंगमेव य जं सो सेसं अतो वोच्छ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org