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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
आचारांग सूत्र के आठवें अध्ययन के प्रथम उद्दे शक में एक पाठ इस प्रकार है
'जे भिक्खू परक्कमेज्ज वा, चिठ्ठज्ज वा, णिसीएज्ज बा, तुयटेज्ज वा, सुसाणंति वा, सुन्नागारेति वा, गिरिगृहंति वा, रुक्खमूलसि वा, कुंभारायतणंसि वा" । (८. २१)
यहाँ 'कु'भारायतवणंसि' (कुम्भकार-आयतन) की बात सहज समझ में नहीं आती। वह शब्द श्मशान आदि चार शब्दों से अलग-थलग पड़ जाता है। सम्भव है इस शब्द के साथ-साथ अन्य आयतनों का भी उल्लेख रहा हो । यह तथ्य आचारांगण की अर्थ-परम्परा से स्पष्ट लक्षित होता है। सम्भव है पहले 'जाव' शब्द द्वारा दूसरे सारे आयतनों का ग्रहण होता रहा हो और कभी किसी लिपिकर्ता से 'जाव' शब्द छूट गया और उस प्रति से लिखी गई सारी प्रतियों में केवल 'कुम्भकारायतणंसि' पाठ लिखा गया। इस प्रकार अनेक शब्द छूट गये। टीकाकारों ने इनका विमर्श नहीं किया। शेष शब्दों के अभाव में इस एक शब्द की यहाँ कोई अर्थ-संगति नहीं बैठती।
इसी प्रकार ज्ञातासूत्र के १.१४.४ में कनकरथ राजा के अमात्य तेतलीपुत्र के गुणों का वर्णन है। वहाँ प्राय: प्रतियों में 'तस्स णं कणगरहस्स तेयलिपुत्ते णाम अमच्चे सामदंड' इतना ही पाठ है। यहाँ जाव' आदि संग्राहक शब्दों का भी उल्लेख नहीं है । वास्तव में यह पाठ इतना होना चाहिए--तस्स णं कणगरहस्स तेयलिपुत्ते णामं अमच्चे साम-दंड-भेय-उवष्प याणनीति-सुप्पउत्त-नय-विहण्णू, 'ईहा-वृह-मग्गण-गवेसण-अत्थसत्थ-मइविसारए, उत्पत्तियाए वेणइयाए कम्मयाए परिणामियाए-चउबिहाए बुद्धीए उववेए, कणगरहस्स रष्णो बहूसु कज्जेसु य कुटुंबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य आपुच्छणिज्जे, मेढी पमाणं आहारे आलंबलणं चक्ख, मेढीभए पमाणभूए, आहारभूए, आलंबणभए, चक्खुभए, सव्वकज्जेसु सवभूमियास लद्धपच्चए विइण्ण वियारे रज्जधुरचितए यावि होत्था, कणगरहस्स रजो रज्ज च रटं च कोसं च कोट्ठागारं च बलं च वाहणं च पुरं च अंतेउरं च सयमेब समुपेक्खमाणे-समुपेक्खमाणे विहरई"।
इसी प्रकार ज्ञातासूत्र में अनेक स्थानों पर लम्बे-लम्बे गद्यांश छूट गए हैं--
(१) इस सूत्र के आठवें अध्ययन का २१७-१८वां सूत्र प्रतियों में इस प्रकार प्राप्त होता है-'आभरणालंकार पभावईपडिसछई...' । इसमें बहुत सारे शब्द छुट गए हैं। पूरा पाठ इस प्रकार होना चाहिए
२१७......."आभरणालंकार ओमुयह । २१८"...""तएणं पभावई हंसलवखणेणं पडसाउएणं आभरणालंकार पडिच्छई। (२) इसी सूत्र के पहले अध्ययन का १६८वां सूत्र प्रतियों में इस प्रकार लिखित हैतए णं तुम मेहा ! अण्णया कयाइ गिम्हकालसमयसि जेट्ठामूले इसके स्थान पर पाठ इस प्रकार होना चाहिए
तए णं तुम मेहा ! अण्णया कयाइ गिम्हकालसमयंसि जेठामूले मासे पायवघंससमुट्ठिएणं सुक्कतणपत्तकवयर - मारुयसंजोगदीविएणं महाभयंकरेणं हुयवहेणं वणदवजालापलित्ते सु वर्णतेसु।'
(१.१.१६८) कई स्थानों में अनावश्यक अंश भी प्रविष्ट हो गये हैं। इसी सूत्र के पहले अध्ययन का १२८वा सूत्र प्रतियों में इस प्रकार उपलब्ध है
'मउडं पिणद्धेति, दिव्वं सुमणदाम पिणद्धति, दद्दर-मलयसुगंधिए गधे पिणद्धेति । तए ण त मेहं कुमार गंथिमवेढिम-पूरिम-संघाइमेणं........'
इसके स्थान पर पाठ ऐसा होना चाहिए......."मउड पिणद्धेति, पिणद्धत्ता गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमेणं...।'
शब्दों के स्थानान्तरण के अनेक उदाहरण हमें उपलब्ध होते हैं। ज्ञातासूत्र के प्रथम अध्ययन के १८५वें सूत्र में-'तएणं से मेहे अणगारे समणओ भगवस्स महावीरस्स अंतिए तहारूवाणं थेराणं सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ"......' ऐसा पाठ प्रतियों में मिलता है। इसका अर्थ है-तब वह मेघ अनगार श्रमण भगवान् महावीर के
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